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________________ [ ४७५ ] और फिर न्यायरत्नजीने छ कल्याणकांका निषेध करके पांच कल्याणकोंको स्थापन करने के लिये श्री हरिभद्रसरिजी कृत श्रीपंचाशकजी सूत्रके मूल पाठका तथा श्रीखरतरगच्छ नायक सुप्रसिद्ध श्री अभयदेव सरिजी कृत तद्वतिके पाठका पूर्वापरके संबंध वाला सविस्तार युक्त सब पाठको छोड़ करके दोनों शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायके विरुद्धार्थमैं तथा पूर्वापरके संबंध रहित बिचमें का अधरा पाठ लिखकर बाल जीवो कोदिखाके अभिनिवेशिक मिथ्यात्ववाली अपनीविद्वत्ता की चातुराईसे मुग्धजीवों को भममें गेरे है, और शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें बिना सबंधका अधरा पाठ मोलेजीवों को दिखानेसै उत्सूत्रभाषणरूप मिथ्यात्वका कारण किया है उसीका निवारण करनेके लिये दोनों शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय सहित पूर्वापरके सबंधवाले सब पाठोंको इस जगह दिखाता हूं सो श्रीहरिभद्रसूरिजीकृत उपरोक्त श्रीपंचाशकजी सूत्र में तीर्थ यात्राधिकार संबंधीपृष्ठ १३५११३६ का पाठ नीचे मुजन है. यथा पंच महाकल्लाणा सव्वेसिं जिणाणं होंति णियमेण । भवणच्छेरय भूया, कल्लाण फलाय जीवाणं ॥३०॥ गझसे जम्मेय तहा णिक्व मणेचेव णाण णिवाणे। भवण गुरूण जिणाणं, कल्लाणा होति णायवा ॥३१॥ तेसुय दिसधरणा देविंदाइ करिति भ त्तिणया जिण जत्ताइ विहाणा कल्लाणं अप्पणो चेव।३२॥ इयते दिणा पसत्या तासैसेहिंपितेसु कायक्वं। जिण जत्ताइ सहरिसं तेय इमेण वद्धमाणस्स ॥३३॥ आसाढसुद्धछट्ठीचेत्तेतहसु द्धतेरसी चेव । मगसिर किणह दशमी वसाहे सुद्धदसमीय ॥३४॥ কমিক্ষি অৰিল মান্থলি সম্ভাবনা Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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