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________________ [४७४ ] अब इस जगह श्रीजिनाज्ञाके इच्छक सत्यबातको ग्रहण करनेवाले निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषों को न्याय पूर्वक विवेक बुद्धिसे विचार करना चाहिये कि उपरोक्त शास्त्रों के पाठों मुजब श्रीऋषभदेवस्वामि आदि तीर्थकर महाराज तथा वर्तमान काले विद्यमान श्रीसीमंधरस्वामिजी महाराज और गणधर महाराज श्रीमुधर्मस्वामिजी तथा चौदह पूर्वधर श्रीभ. द्रबाहुस्वामिजी आदि पूर्वधर महाराज और श्रीवडगच्छ, श्रीचन्द्रगच्छ,श्रीखरतरगच्छ श्रीतपगच्छादिसबीगच्छों के विद्वान् पुरुषोंने अनेक शास्त्रों में श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों की खुलासा पूर्वक व्याख्या करी हैं सोतो उपरोक्त शास्त्रोंके प्रमाणोंसे प्रगट दिखती है तथापि बड़ेही अफसोसकी बात है कि विद्यासागर जैनश्वेतांबर धर्मोपदेष्टाकी उपाधि धारण करने वाले न्यायरत्नजी श्रीशांतिविजयजी तथा और भी वर्तमानिक गच्छकदाग्रही विद्वान् नाम धराते भी श्रीवीर प्रभुके छ कल्याणकोंका निषेध करते हैं सोतो पंचांगी के अनेक शास्त्रों के पाठों को प्रत्यक्षपने उत्थापन करके गच्छ कदाग्रही दूष्टिरागी तथा विवेक शून्यहोकर अंध परंपरामें चलनेवाले बालजीवोंकी श्रीतीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंकी कही हुई छ कल्याणकोंकी सत्य शत परसे श्रद्धा भष्ट करनेका कारण करते हुए उपरोक्त महाराजोंकी आजा उत्पापनरूप उत्सत्रभाषणसे कितना संसार बढ़ावेंगे सोतो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने। और अनेकशास्त्रों में खलासा पूर्वक छ कल्याणक लिखे हैं तिसपर भी उसीका न्यायरत्नजी निषेध करते हैं सोनी कलयुगी विद्वत्ताका नमूना मालूम होता है सोविवेकी पाठक गा स्वयं विचार लेवेगें:Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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