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________________ [६४८ । इत्ति लघुत्ति, भीमवपदप्रकरणत्ति, श्रीयोगशास्त्रवत्ति वगैरह शास्त्रोंने पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों ने श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महा. राजोंकी भाव परम्परानुसार श्रावकके सामायिक, पहिले करेमिभन्त पीछे इरियावही करना कहा है, जिसको निषेध करने वाले, और (तीसरा) श्रीपञ्चाशकजीमें सर्वतीर्थङ्करमहाराजोंसम्बंधी सामान्यताके पाठका तात्पर्यार्थको समजे बिना उस सामान्यताके पाठको आगेकरके, फिर-वस्तु,स्थान आश्चर्यके, बहाने श्रीकल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रों में श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने एक श्रीवर्द्धमान स्वामी संबन्धी खास विशेषताकेपाठमें श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोंका कथन कियाहुआ होनेपरभी इसकानिषेध करने के लिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर नवीनछठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेकाजूठा दोष लगाने वाले, इन उपरोक्त विषयों सम्बंधी उन शास्त्रोंके रहस्यको न जाननेवाले अज्ञानी उत्सूत्र भाषण करके श्रीजिनाज्ञाकीविराधनाकरतेहुए कुयुक्तियोंके खोट आलम्बनोंसे भद्रजीवोंको उन्मार्गके मिथ्यात्वमें गेरने वाले बनते हैं तथा उपरोक्त बातों संबन्धी उपरोक्तादि शास्त्रोंके पाठोंको जपरकी बातोंके निषेध करने वालोके देखने में और सुनने में भी नहीं आये होगें ऐसा समझना चाहिये सोतो निष्पक्षपात पूर्वक विवेक बुद्धिसे इस ग्रन्थको पूरा बांचने वाले आत्मार्थी सत्यग्राही तत्वज्ञ जन अच्छी तरहसे समझ लेंगे, तिसपर भी उपरोक्त बातों सम्बन्धी किसीके दिलमें अपने माने मंतव्य मुजब साबुत करनेकी बहादुरीकी होंस होवे तो अन्यान्य विषयोंकी आडलेनेका और ढूढक तेरहपंथियों जैसी रांड नपुतीकी तरह व्यर्थ शिरपची कर्मबंधकी लड़ाइका कारण न करते, झूठे पक्षका अभिमानको छोड़कर सत्य बातको ग्रहण करनेकी अभिलाषा धारण करके, मैरेसे वर्तमानिक छापों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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