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________________ [ ६४३ ] आपके पूर्वाचार्यों को तथा अन्य सब पूर्वाचार्यों को अज्ञानी ठहरानेवाले व उत्सूत्ररूप छ कल्याणक लिखनेवाले आपके लेखसे ठहरगये, तो अब यहां पर विचारने की बात है, कि सब पूर्वाचार्यो को अज्ञानो ठहरानेवाले तथा उत्सूत्रलिखनेवाले कुलमण्डनसूरिजीको न्यायां भोनिधिजीकी मंडलीवाले विद्वान्जन अपनीगुरु परम्परामें कदापि रहने देवे यह तो नहीं बन सकता इसलिये अब विद्वानोंके आगे हास्य जनक अपनी कुबुद्धिकी ऐसी ऐसी कुयुक्तियें करना छोड़ कर, या तो शास्त्रानुसार छ कल्याणक मान्य करो या कुलमंडनसूरिजीको अपनी गुरु परम्परासे निकालो । और अपनी समझ मुजब अपने लिखे लेखसे हो अपने पूर्वज, सब पूर्वाचार्यो की आशातना करने वाले उत्सूत्र के दोषी ठहर जावें तिसपर भी उनको अपने बड़े पूर्वज गुरुपनेमें मानते हैं सोभी बड़ी शर्म की बात है और यदि इन महाराजको अपने पूर्वज गुरु उत्तम पुरुष पने में मान्य रखो तो इनपर ऐसा बड़ा भारी दोष लगानेका आक्षेप लिखा सो उनका प्रगटपने मिच्छामि दुक्कड़ देकर छ कल्याणककी सत्यबातको मान्य करलो, अन्यथा छ कल्याणक भी मान्य न करोगे और अपने पूर्वजको हमारे पूर्वजका अनुकरण करनेवालेभी कहोगे तबतो 'ममजननी वंध्यावत्' को तरह विवेकी सज्जनोंके आगे आपका लिखना बाल लीलाका ख्याल मुजब आत्मार्थियों को प्रत्यक्षपने स्वयं ही त्यागने योग्य मालूम हो जावेगा, और इन महाराजको अपनी गुरु परम्पराका समुदायसे निकालना मान्य करो तो 'जैनतत्वादर्श' वगैरह पुस्तकों में इनको उत्तम पुरुषपने में मान्य करके लिखा है जिसका सुधारा सम्बन्धी वर्तमानिक पत्रोंद्वारा जाहिर खबर ( नोटिस ) निकालना पड़ेगा और इन महाराज संबंधी ऐसा करने में भी मदीसे समुद्र में गिरने जैसी विड Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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