SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६४० ] अब विचार करना चाहिये कि हमारे पूर्वजका अनुकरण आपके पूर्वज करते तो अधिक मासकी गिनती निषेध कदापि न करते परन्तु, करी इससे भी सिद्ध होता है कि अनुकरण नहीं किया किन्तु अपना रुचा किया है इसलिये अनुकरणके बहाने मायाचारीसे छठे कल्याणककी सिद्धिकी बातको उड़ाना चाहा सो प्रत्यक्ष मिथ्या ठहर गया इससे छठे कल्याणकका निषेध करना छोड़ कर अपने पूर्वजके लिखे मुजब छठे कल्याणकको मान्य करो तो अच्छा है और श्रीकुलमण्डनसूरिजीने छ कल्याणक लिखे परन्तु उसको तुम्हारे किसी भी पूर्वाचार्य ने निषेध न किया तथा उस ग्रन्थको अप्रमाणभी न ठहराया इससे भी सिद्ध होता है कि कुल मण्डन सूरिजीके समयमें तुम्हारे सबी पूर्वज तथा कुलमण्डनसूरिजीके पूर्वज पूर्वाचार्य सबी छ कल्याणक मानने वाले थे अन्यथा कोई भी उसका निषेध अवश्य करते सो न किया ॥ तथा यह बात तो स्वयं सिद्धही है, कि हरेक गच्छके आचार्यादि जो कोई विवेक बुद्धिवाले श्रीकल्पसूत्रादि शास्त्रोंके प्रत्यक्ष पाठोंका अर्थको समजने वाले कदाग्रह रहित होंगे सोतो सभी छ कल्याणक मान्य करेंगे क्योंकि शास्त्रों में बहुत जगहोंपर खुलासा लिखा है।तथा वस्तु, स्थान, कल्याणक, तीनों शब्द पर्याय वाची एक अर्थको कथन करने वाले हैं इसलिये कुल मण्डन सूरिजीके पूर्वाचार्य तथा उनके समयमें वर्तमानिक तपगच्छके समुदाय वाले आचार्यादि सबी छ कल्याणक मानते होवे उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है अतएव न्यायांभोनिधिजीकी साधुमंडलीसे तथा श्रीतपगच्छके समुदायसे मेरा यही कहना है कि जब श्रीतीर्थंकर गणधर महाराजोके कथन किये हुए छ कल्याणकोंकोतपगच्छके खरतरगच्छकेवगैरहसभी आत्मार्थी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy