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________________ [ ६३६ ] दिखाकर कितना बड़ा महान् अनर्थ करके मिथ्यात्वका कारण किया खैर । अब श्रीजिनाज्ञाभिलाषी आत्मार्थी विवेकी पाठक गणसे हमारा इतनाही कहना है कि, उपरोक्त पाठके बनानेवाले टीका कार महाराजने चैत्यवासियों के लिये पूर्वापर सम्बन्ध सहित ऊपर के पाठका भावार्थ सम्वन्धी “ चेत्यादि विषयः प्रदर्शितश्च प्रकारः" ऐसा खुलासा लिख दिया था तथा उपरके पाठकी व्याख्या करने की आदिमें ही पूर्व की गाथाके प्रसङ्गका इस गाथामें सम्बन्ध करनेका लिखा था जिसको तो इन्होंने जड़मूलसे ही उड़ा दिया और ग्रन्थकार के अभिप्राय विरुद्ध होकर आगे पीछेके सम्बन्धको तोड़कर बिना सम्बन्धसे १ गाथा को लिखके उसका उलटा अर्थ करके भोलेजीवों को अपनी मायाजाल में फंसाने के लिये श्रीजिनाताकी विराधनाका भय न करते हुए कितना बड़ा महान् अनर्थ करके आगमोक्ल छठे कल्याणककी सत्यबातको उत्सूत्ररूप असत्य ठहराके श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज पर छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करने का दोष ( कलङ्क ) लगादिया और पर्युषणा, कल्याणक, सामायिकके विषयो में भी शास्त्र प्रमाणोंको उत्थापतेहुए कितनेही उत्सूत्र लिखके कुयुक्तियों से भद्रजीवोंको उन्मार्गके भ्रम में गेरनेके लिये अपनी बुद्धिको चातुराई खर्च करने में किसी तरहसे न्यून्पता न करके श्रीमद्यशोविजयजीको कथन करीहुई उपरोक्त गाथाको सार्थक करी तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजी को झूठा दोष लगाया सो ऐसे कर्तव्योंसे प्रत्यक्षपने दीर्घ संसारीपके लक्षण मालूम होते हैं तिस पर भी शास्त्रप्रभाणको उत्थापकर उत्सूत्रों से कुयु क्रियों करके मिथ्यात्वका कारण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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