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________________ भावार्थ:-तिसपिछ, जिस जिनवमसूरिजीने, सहायविना, एकाकी, दूसरेकी सहायमें निरपेक्ष अत्यंत आश्चर्य यह विधि आगमोका छठा कल्याणक रुप, ऐसें औरभी विषय पहिले जो दिखाये सों अतिशय करके यह छठा कल्याणक हो है, जो इस बात सहन न कर सकता होवे सो अतिशय करके कथन करो? ऐसे कथनके साथ अपने स्कंधोको आस्फालन पूर्वक छठा कल्याणक कथन किया है अर्थात् अपनी भुमासे खंभा ठोकके छठे कल्याणककी परुपणाकरी सर्वलोकोके प्रत्यक्ष कथन किया, और जो यह छठा कल्याणक नही जाने है सिद्धांतके रहस्य ऐसें जितने होगये आचार्य उनोंके कणं प्रथमें तो दूर रहो परंतु लोचम मार्गमें भी नही माया है, ऐसा छठा कल्याणक कहा है भगवतके वचन जानमेवाले श्री जिन वलभ रिजीने, अब इस गणधर सार्द्ध शतकके पाठसे आपही विचारीये ! कि जब आपके बड़े प्रीजिनवमभमूरिजीने पूर्वाचार्यो कों सिद्धांतके रहस्य न जानने वाले ठहराके और विद्यमान भाचार्योसे निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक नवीन कथन किया तो फिर किस वास्ते सिद्धांतका झठा नाम लेके डोकोंको भरममें गेरते हो? और पृष्ट ८८ पंक्ति में तपगछीय एक भीकुलमंडन सूरिजीका जो उदाहरण दिया है सोतो तुमारे बड़काही अनुकरण किया है, ॥ पूर्वपक्ष ॥ श्रीकुलमंडन पूरिजीने अनुकरणही कियाहै यह कैसे हम जान लेवे ? उत्तर हेमित्र ! इतना तो विचार कारणा चाहिये कि-जब पहिले श्री जिनवल्लभसरिजीने समी आचार्योसे 'निरपेक्ष होके नवीनही छठा कल्याणक दिखाया तो फिर बाहको तर्क करते हो , और हे मित्र | अब इस बड़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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