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________________ [ ६०६ ] पञ्चाङ्गीके अनेक प्रमाणको और पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों के वचनोंका उत्थापनरूप उत्सूत्रके फँद याने बोकाको धारण करके श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकके निषेध करनेके लिये वृथा ही गच्छके पक्षपात से बिना विचारे लिखा । हा ! अति खेद ! ऐसे सुप्रसिद्ध प्रभावक कहलानेवाले होकर के भी उत्सूत्रसे अलग न रहे - खेर ! अब आत्मकल्याणाभिलाषी निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषोंसे मेरा यहां इतना ही कहना है कि - राज्याभिषेककी तरह गर्भापहारके कल्याणकत्वपनेको निषेध करना सर्वथा वृथा है सो तो इस ग्रन्थको पढ़नेवाले तत्वचजन स्वयं विचार लेवेंगे, - शङ्का - अजी जिसके पूर्वज श्रीहीरविजयसूरिजीने तो श्रीवीर प्रभुके छठे कल्याणकको निषेध किया और उनके सन्तानीय अपने पूर्वज के विरुद्ध होकर के छठे कल्याणकको सिद्ध किया सो कैसे माना जावे । समाधान - मो देवानु प्रिय ? तेरेको श्रीजैन शास्त्रोंके तात्पर्यार्थकी गुरुमन्यसे या अनुभवसे मालूम न हुई इसलिये ऐसी शङ्का उत्पन्न हुई परन्तु अब हम तेरे और अन्य भव्य जीवों के उपकारार्थ शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक और प्रत्यक्ष प्रमाण सहित तेरी शङ्काका समाधान करते हैं सो देखो श्रीजिनेश्वरभगवान्की आज्ञाके आराधक जो आत्मार्थी भवभीरू पुरुष होते हैं सो तो भगवान्‌की आज्ञा विरुद्ध अपने गुरु और च्छकदाग्रहको कल्पित बातका पक्षपात न रखते हुए उसका त्याग करके मध्य जीवोंके उपकारके लिये शास्त्रानुसार की सत्य बातको प्रकाशित करते हैं जैसे कि - जमालीकी कल्पित बातको उनके भात्मार्थी शिष्योंने त्याग करी और मीवीर प्रभुके कथनानुसार सत्य बातको ग्रहण करके भव्य जीवोंनें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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