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________________ [ ६०५ ] भकर छठे कल्याणकको मानने संबंधी इन महाराजका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या है सो इसको विशेषताये तत्वजन स्वयं विचार लेवेंगे । और राज्याभिषेकको कल्याणकत्वपनेका निषेध करनेके साथ गर्भापहारके दूसरे च्यवन कल्याणकको भी कल्याणकत्वपनेसे निषेध किया सोतो पूर्वपक्षका उत्तर देने में निजमेही श्रोजिनाज्ञाका लोप करने लगे जिसका कारण तो उत्सूत्र प्ररूपक धर्मसागरजी की धर्मधूतईकी वक्रताके सङ्गतका गुण प्राप्त हुआ मालूम होता है क्योंकि देखो श्रीतीर्थंकरगणधरादि महाराजके कथन सूजब पचाङ्गीके अनेक शास्त्रानुसार गर्भापहाररूप दूसरे व्यवन कल्याणक सहित छः कल्याणककी प्रत्यक्षपने स्वयंसिद्धि होते भी तथा श्रीतपगच्छके भी पूर्वाचार्यों ने खुलासापूर्वक छ कल्याणका कथन किया हुआ होतेभी धर्मसागरजीने अपने अन्तर मिध्यात्व के उदयसे छठे कल्याणकके तात्पर्यार्थको समझे बिना ही उत्सूत्रभाषणपूर्वक कुयुक्तियोंके भ्रमचक्र बाट जीवको गेरनेके लिये राज्याभिषेक के कथनका मतलब समझे बिना निष्प्रयोजन राज्याभिषेक के पाठका सहारा लेकरके श्रीवीरप्रभुके छठे कल्याणकको निषेध करनेका उद्यम किया उसी धर्मसागरजीकी तथा इसीके बनाये उत्सूत्र भाषणों के संग्रहवाले तथा कुयुक्तियोंका निधि और पूर्वाचार्योंकी झूठी निन्दावाले अनुचित शब्दों करके युक्त निजपरके संसार भ्रमणका और दुर्लभ बोधिपनेका कारणरूप कदावही ग्रन्थोंकी सङ्गतसे श्रीहीरविजयसूरिजी ने भी निज मानाका और पचागीके प्रत्यक्ष प्रमाणका विवेक बुद्धिसे विचार किये बिना ही प्रीतीर्थकर गणधरादि महाराजों के कथन के विरुद्ध होकर के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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