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________________ [ ५७७ ] और भीतीर्थकर भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणक कहनेका तो प्रायः करके सवकोई विवेकी जैनी जानतेही हैं तथापि न्यायांभोनिधिका विशेषण धारण करनेवाले आत्मारामजीने श्रीतीर्थंकर भगवान् वीरप्रभुके च्यवनादिकोंको कल्याणकपमेसे निषेध करनेके लिये श्रीस्थानांगजीसूत्रके मूल पाठमें श्रीगणधर महाराजके कथन किये हुए चौदह तीर्थंकर महाराजोंके सत्तर (७०) कल्याणकोंको जड़ मूलसे उड़ा करके अपने गच्छ ममत्वको कल्पनाको स्थापन करनेके लिये ऐसा महान् अनर्थ किया परन्तु उत्सूत्रभाषणसे संसार द्धिका कारण भूल गये सो बड़ेही खेदकी बात है कि-इस कलियुगमें श्रीआत्मारामजी इतनेबड़े प्रसिद्ध विद्वान् हो करके भी विद्वताके अभिमानसे दृष्टिरागी भोलेजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरमे के लिये श्रीअनन्त तीर्थकर गणधरादि महाराजोंके कथन किये हुए (श्रीतीर्थंकर भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणकपनेके.) अर्थ का भङ्ग करके सर्वथा निषेध करने का इतना अनर्थ कारक परिश्रम करके भी शुद्ध प्ररूपक उत्क्रष्टि क्रिया करनेवाले आज्ञा आराधक कहलाते हुए कुछ लज्जा भी नहीं करी सो तो अन्तर मिथ्यात्वका कारण ही मालूम होता है इस बातको विशेषतासे निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेवेंगे ___ और इतने पर भी प्रोस्थानांगजी में १४ तीर्थंकर महाराजों के च्यवनादिकोंको कल्याणक शब्दसे सूत्रकारने न लिखा देख करके च्यवनादिकोंको कल्याणक न माननेवाले विवेकशून्य हठावादियोंके कल्पित कदाग्रहको विशेषतासे दूर करने के लिये इस अवसर पर पाठकगणको यहां प्रत्यक्ष प्रमाण भी दिखाता हूं कि-देखो इसीही श्रोस्थानांगजी सूत्रके तीसरे स्थानके मूल पाठमें तथा उसीकी वृत्तिमें श्रोतीर्थंकर भगवान्के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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