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________________ [७] भीकल्पसूत्रने और श्रीआचारांगजी सूत्र में श्रीमहावीरप्रभुके भी च्यवनादिसे मोक्ष पयतका विस्तारसे चरित्र वर्णन किया है उसीको कल्याणक कहनेके बदले उलटे विशेषतासे निषेध करते हैं इससे तो शासन नायक श्रीवीरप्रभुके च्यवनादि कल्याणकोसे आपलोगोंके पूर्णतया द्वष मालूम होता है अन्यथा २२वें २३ वें और प्रथम भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणक कहनेका और २४ वें भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणकपना न कहके निषेध करनेका ऐसा प्रत्यक्ष अन्याय अपनी विद्वत्ताकी चतुराईको लज्जानेवाला कदापि नहीं होता, इस बातको तत्वज्ञ जन स्वयं विचार लेना और श्रीस्थानांजी सूत्रमें चौदह तीर्थकर महाराजोंके च्यवनादि पांच पांचके नाम और नक्षत्रों के नामों को खुलासा पूर्वक वर्णनके साथ सूत्रकार श्रीगणधर महाराज, व्याख्या करी है उसी कल्याणक शब्द न देखकर १४ तीर्थंकर महा. राजोंके च्यवनादि पांच पांच कल्याणकोंको मानने में न्यायांभोनिधिजीको तथा उन्होंके पक्षवालोंको भ्रांति पड़ गई इसलिये “उसीमें कल्याणक शब्दका गंध भी नहीं है" इत्यादि शब्द लिखके पीस्थानांगजीमें चौदह ही तीर्थंकर महाराजोंके च्यवनादि पांचों पांचोंको कल्याणकों रहित ठहराये सो भी पूर्ण अज्ञानता या अभिनिवेशिक मिथ्यात्वताकाही कारण मालूम होता है क्योंकि-उपर लिखे न्यायानुसार तीर्थकर भगवानों के च्यवनादि पांचोंकों कल्याणकपना तो अनादिसे स्वयं सिद्ध है तथा भगवान्के च्यवनादिकोंका नाम मात्र ही कथनसे कल्याणकका अर्थ तो जैनमें प्रगटपने है इसलिये कल्याणक शब्द लिखनेकीही कोई जरूरत भी नहीं है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034474
Book TitleAth Shatkalyanak Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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