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किया और निर्लिप्त रह मन वचन काया रूपी योग और करने कराने अनुमोदन करने रूप.प्रकारों से अहिंसक रहने की प्रेरणा की। इस पुस्तक में स्वामीजी की क्रांति
और इस दिशामें उनके प्रयत्न का थोड़ा पर हृदयमाही वर्णन आया है। .... श्रावक गृहस्थ होता है। गृहस्थी के बंधन के कारण पूरी अहिंसा उसके लिए शक्य नहीं होती। कई हिंसाएँ उसके लिए अनिवार्य व आवश्यक सी होती हैं। इन हिंसाओं को अहिंसा करार देने का मन होने लगता है। 'जो जरूरी है वह धर्म क्यों नहीं ?–कमजोर मन इस तर्क के वशीभूत हो जाता है। ...
स्वामीजी ने कहा : "हिंसा हिंसा ही रहेगी, अनिवार्यता वश वह अहिंसा नहीं हो जायगी। जो हिंसा को अहिंसा करार देते हैं वे मिथ्यात्व का प्रचार करते हैं। "उन्होंने कहा था जो हिंसा कियां धर्म हुवै तो, जल मथियां घी आवैजो'यदि हिंसा में धर्म हो तो जल मथने से घी निकले।' हिंसा और अहिंसा को उन्होंने धूप और छांह, पूर्व और पश्चिम के मार्ग की तरह एक दूसरे से भिन्न बतलाया और हिंसा में पाप और अहिंसा में धर्म की भावना को पुष्ट करने का उपदेश दिया। लेखक ने सुन्दर शब्दों में बताया है कि सत्य-दृष्टि से कैसे आत्म का उद्धार होता है। यह पुस्तक 'अहिंसा के बारे में फैली हुई गल्तफहमियों को दूर करती हुई एक नया प्रकाश देती है। आशा है महासभा का यह प्रकाशन पाठकों को रुचिकर होगा।
२०१, हरिसन रोड,
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श्रीचन्द रामपुरिया
मंत्री
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