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________________ - बीब पड़े हैं क्या? साधारणतः किसी पुरुष के पास अच्छा स्वात्य, प्रचुर धन, स्नेह-शील परिवार वर्ग हो तो हम उसे सुखी मानते हैं। यही क्या हमारे पूर्ण सुख की पूर्ण व्याख्या है ? कुछ चिंतन पर हो इस व्याख्या की त्रुटियां नजर आ जायेंगी। उपर्युक्त साधनों से स पुरुषों को भी दुःखी होते देखा है-ऐसे कई एक महापुरुषों ने संसार से मुंह मोड़ कर वैराग्य धारण किया है। सुख के प्रति यह उदासीनता कैसी ? हम कुछ और गहरे उतरें। आंखें खोल कर चारों सरक देखने से यह अनुभव मिलता है कि सुख की कल्पना प्रत्येक मनुष्य में हो भिम नहीं है पर किसी एक ही मनुष्य की सुख धारणा काळ भेद से परिवर्तित होती चली जाती है। बाल्यकाल में बच्चे खिलौने पहले हैं, खेल कूद में ही वे सुख की अनुभूति करते हैं। युवावस्था के पदार्पण करते ही यह बाल्य सुलभ क्रीड़ा चली जाती और उसका स्थान ले लेती है विषय पूर्ति की लालसा। जीवन के ऋतु परिवर्सन के साथ यह भावना भी मर जाती है और प्रौढ़ावस्था में मन का आकर्षण दूसरी ही तरफ खिंच जाता है। कभी कभी ऐसा भी एक समय आमा है जब भवसाद हमें घेर लेता है और इन्द्रियों में सुख-बोध की शक्ति ही नहीं रहती। इस तरह हम देखते हैं कि हमें सुख के साधनों को नित्य प्रति बदलना पड़ता है। जो बिलौने बाल्यकाल में सुख के साधन हैं वे युवावस्था में काम नहीं देते। इसी भांति जीवनपर्यन्त पूर्ण, परम सुख प्राप्ति की चेष्टा में हम, सुख के साधन, सुख की कल्पना बदलते जाते हैं पर शान्ति या अभीष्ट सुख नहीं मिलता। संसार में पग-पग पर दुःख मिला करता है जो सुख मिलता है वह भी अनित्य, परिवर्तनशील। सच तो यह है कि पौद्गलिक सुख तो फूलों में छिपा सांप है या यों कहें कि दुःख का अग्रगामी दूत मात्र है। यदि यही क्षणिक सुख वास्तविक सुख हो, यदि यही सुख जो दुःख से अछूता कभी मिलता ही नहीं, परम सुख हो तो हमें हतास होकर कहना पड़ेगा कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034470
Book TitleAnukampa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Chopda
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1948
Total Pages26
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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