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________________ अनुकम्पा ११ ला दी है तो उस शिथिलता को हमारे ज्ञान में प्रवेश क्यों करने दें ? केवल सत्य की उपासना अर्थात् तथ्य के वास्तविक स्वरूप को मानना भी बड़ा फलप्रद है । सत्य और अहिंसा की तुलना करते पंडित दरबारीलालजी ने संत्य को पति एवं अहिंसा को जो पत्नी की उपमा दी है वह बड़ी संगत बैठती है । सत्य ही अहिंसक आचारण की सामग्री उपस्थित करता है, यही अहिंसा को पुष्ट करनेवाला पथ प्रदर्शक है । अतः मोह को सत्य पर आक्रमण न करने देना चाहिये । मनन करने पर तो यह स्पष्ट हो जाता है कि मोह तो द्वेष का रूपान्तर मात्र है । जहाँ राग है वहां द्वेष है, जहाँ द्वेष वहीं राग । मोह के कारण ही तो किसी के प्रति द्वेष भाव उठेगा । हम निज से, परिवार, जाति या देश से मोह करते हैं तभी तो हमें इनके सुख-स्वार्थ के लिये दूसरे दूसरे जीवों से वैर बांधना पड़ता है । अतएव मोह के सुनहले फंदे से हर समय बचना चाहिये। सच्चा साधुत्व तो इसी में है कि हम जैन शास्त्रों के इस महान् उपदेश को सत्य कर दिखावें – “मित्ती में सव्वभूएस वेरं मज्म न केणइ” । प्राण-रक्षा और दया : ऊपर दया के एक विशिष्ट पहलू पर विवेचन किया गया है पर अब हमें देखना है कि कोरी प्राणरक्षा भी दया कोटि में आ सकती है कि नहीं ? श्रीमद् भिक्षु गणि का एक दृष्टान्त इस विषय को बड़ा स्पष्ट करता है। एक योगीराज के सम्मुख ही एक चूहे पर बिल्ली टूट पड़ी । योगी को करुणा हो आई । उन्होंने मन्त्रबल से उस बिल्ला बना दिया और बिल्ली से उसकी रक्षा की। इतने पर कहीं से एक कुत्ता उस ओर जा निकला तथा दुबारा बिल्के के प्राण संकट में देख योगी ने उस बिल्ले को कुत्ते का रूप दिया । पर दैव समय एक विकराल भेड़िया वहाँ जा पहुंचा। इस बार चूहे को एक सबल योग से उसी कुत्ते के प्राण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034470
Book TitleAnukampa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Chopda
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1948
Total Pages26
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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