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समयमें दोनों जने गुरुके पास पहुँच गये। यह देखकर सब मुनि भावदेवकी प्रशंसा करने लगे। भवदेवको उपायान्तर न होनेसे दीक्षा लेनेके लिये बाध्य होना पड़ा। कुछ दिनों पश्चात् सौधर्म मुनि फिर वर्धमान नगर में आये । भवदेव अपनी स्त्रीका विचार करके वहाँ एक जिनालय में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक अर्जिकाको देखा । उससे उन्होंने अपनी स्त्रीके संबंधकी कुशल-वार्ता पूँछी । अर्जिकाने मुनिके चित्तको चलायमान देखकर उन्हें धर्ममें स्थिर किया और कहा कि वह आपकी स्त्री मैं ही हूँ । भवदेव छेदोपस्थापनापूर्वक चारित्रमें फिरसे तत्पर हुए। अन्तमें दोनों भाई मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुए। भावदेव स्वर्गसे च्युत होकर पुंडरीकिणी नगरीमें वज्रदन्त नृपतिके घर सागरचन्द्र नामका, और भवदेव वीतशोका नगरीम महापद्म चक्रवर्ती के घर शिवकुमार नामका पुत्र हुआ। ये दोनों युवा होकर भोगोंके भोगने में मग्न हो गये। एक बार पुण्डरीकिणीमें कोई मुनि पधारे। सागरचन्द्रने मुनिका उपदेश श्रवण किया । पश्चात् मुनिने उन दोनों भाईयोंके पूर्वभवोंका वर्णन किया। सागरचन्द्रने संसारके भोगोंसे विरक्त होकर जिनदीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् अपने भाईको बोध करनेके लिये सागरचन्द्र वीतशोका नगरीमें गये, और
१ इस कथा- भाग में भी श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परामें कुछ भेद पाया जाता है । उक्त श्वेताम्बर विद्वानोंके अनुसार जिस समय भवदत्त (भावदेव ) अपने लघु भ्राताको बोध देनेके लिये आये, उस समय वहाँके वातावरणको देखकर स्वयं भवदत्तका ही महाव्रत जर्जरित हो जाता है । वे वापिस लौट आते हैं, और दूसरे साथी मुनि इसपर भवदत्तका उपहास करते हैं । भवदत्त फिरसे भवदेवको दीक्षित करनेकी प्रतिज्ञा करके उसके पास जाते हैं, और उसे किसी तरह गुरुके पास लाकर दीक्षित करते हैं।