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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार पैसा कमाना ही ध्येय न हो अपितु उसकी नैतिकता की तरफ पूरा ध्यान हो । सुगंधित कस्तूरी के व्यापार में कई निरीह मृगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ जाता है पर हमें क्या ? विवेक के बिना नफाखोरी की गणित बताने वाले मानवीयता के हिसाब में गलत साबित होते हैं । 82 प्रमादचर्या हिंसादि प्रवृत्तियों का दूसरा कारण है। हम स्वार्थ के लिए वृक्षों का निकंदन कर डालते हैं, बड़ी बड़ी खुदाइयां करवाते हैं, अंधश्रद्धा में जंगल जला देते हैं, पर्यावरण प्रदूषण करते हैं व पर्यावरण का विनाश करते हैं, व्यवसाय आदि के लिए फलफूल आदि का संग्रह करते हुए जीव हिंसा करते हैं। गुरुवर कहते हैं कि हम जैसी भावना करते हैं वैसा ही हमारे जीवन में घटित होता है इसलिए अपने जीवन के व्यापार में अनर्थदण्ड रूपी हिंसा एवं हिंसा के आयतनों, अनाचारों व अतिचारों से विवेकपूर्वक बचें। संघस्थ मुनि सुधीरसागरजी ने अपने प्रवचन में इस नश्वर शरीर का मोह त्यागने के लिए कहा। इसका मोह साधना में बाधक है, वही श्रावक को कर्म बंध कराता है। यदि हम दुनियाँ को खराब बताने की बजाय दर्पण में अपना ही चेहरा निहारेंगे तो ज्ञात होगा कि हममें कितने अवगुण हैं । समस्या तो दूसरों के अवगुण ढूँढ़ते रहने से पैदा होती है। जो हो रहा है उसे होने दें उसमें अपनी कर्ता वृत्ति न लगाएं तो दुखी होने का निमित्त नहीं बनेगा । खुद के अपमान से आहत होने के बजाय दूसरों को सम्मान दें तो समस्याएं अपने आप कम हो जायेंगी । 40 धर्म और तप युवास्था में करने का कर्तव्य है, वृद्धावस्था तो सल्लेखना के लिए है तन मिला तप करो, करो कर्म का नाश । सूर्य चन्द्र से भी अधिक है तुममें दिव्य प्रकाश ।। अखिल भारतीय दिगंबर जैन समाज के श्रेष्ठी किशनगढ़ राजस्थान निवासी श्री अशोक कुमार पाटनीजी परम पूज्य गुरुदेव के दर्शनार्थ पधारे। अपने धन का जन-कल्याण के कार्यों में सदुपयोग करने वाले तथा साधु संतो की सेवा में तन, मन, धन से समर्पित पाटनीजी का दिगंबर जैन समाज गांधीनगर ने भावभीना स्वागत किया । तप कल्याणक की बेला में राष्ट्र गौरव संत की उपाधि से विभूषित परम पूज्य आचार्यश्री सुनील सागरजी महाराज कल्याणकारी उपदेश दे रहे थे कि बंधुओ ! यदि धर्म करना है, तपस्चर्या करनी है तो युवावस्था में ही अपने कदम इस पथ पर बढ़ाओ वरना
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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