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________________ अणुव्रत सदाचार और शाकाहार गुरुदेव ने कहा कि जब वो दर्शन के लिए आये थे तब उन्हें बताया गया था कि आचार्यश्री मौन में हैं थोडी देर बैठे तो शायद बात हो सकेगी। उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि महाराजश्री की शांत मुखमुद्रा देखकर ही ज्ञात होता है कि यहाँ अहिंसा और करूणा की धारा बहती है। उन्होंने बहुत श्रद्धा भाव से वंदन किया। स्वाध्याय पूरा होने पर गुरुदेव ने उन्हें स्वरचित प्राकृत भाषा की श्रेष्ठ कृति सुनील प्राकृत समग्र भेंट की। नितिनभाई ने उसमें से देखकर बाहुबली स्तुति का पठन किया और कहा कि सच में प्राकृत भाषा संस्कृत से भी अधिक प्राचीन है। गुरुदेव कहते हैं कि कोई व्यक्ति विनम्र होता है तभी मुँह से अच्छे शब्द निकलते हैं। इसलिए हे भव्य जीवो, धर्म का सेवन करो, मृदु बनो, मुलायम बनो। मृदुता नहीं है तो हाथ भी नहीं जुड़ते। अरे! वहाँ तक झुके कौन? संतों का दर्शन बहुत पुण्य से होता है उसमें भी दिगंबर संत का दर्शन तो बहुत मुश्किल से होता है क्योंकि पवित्र व्यक्ति तक पहुँचने के लिए स्वयं के मन में भी थोड़ी सी पवित्रता तथा पल्ले में थोड़ा सा पुण्य होना ही चाहिए। मृदु अर्थात् ऋजु, सरल। दुनियाँ में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो सरल हैं। लोग उनकी सहजता का फायदा उठाकर भले ही उन्हें ठग लेते हों लेकिन अंततः उनका भला नहीं होता, यह थोड़े दिन ही चलता है। यदि हम दूसरों के लिए खाई खोदते हैं तो उसमें स्वयं गिरते हैं। निर्लोभता, शुचिता, मन की, हृदय की पवित्रता ये आत्म स्वभाव है इसलिए कपट नहीं करना चाहिए। शरीर को तो बहुत लोग पवित्र करते हैं और इस समय सभी तन की और घर की सफाई में लगे हैं, सब कुछ चकाचक कर रहे हैं लेकिन ये सफाई तब तक बेकार है जब तक मन की सफाई नहीं होती। कुछ लोग सफेद कपड़े पहनते हैं पर अंदर से इतने काले होते हैं कि कोई कर्म-कुकर्म करने से नहीं चूकते। भगवान महावीर स्वामीजी कहते हैं कि बाहर से जितने अच्छे रह सकते हो रहो किन्तु भीतर से अच्छे से अच्छा बनने की सतत कोशिश करते रहो। __ भगवान् महावीर स्वामी का समवशरण लगा हुआ था। सभी श्रोता अपनी अपनी जगह बैठे हुए थे तभी किसी ने प्रभु से पूछा कि हम कैसे चले? कैसे बैठें? कैसे सोंएं? कैसे खाए-पीएं? तथा कैसे बोलें ताकि पाप का बंध न हो। बंधुओ! प्रश्न बहुत सीधा सा किन्तु महत्वपूर्ण है। कृपालु प्रभु ने दिव्यध्वनि के द्वारा इसी प्रश्न में से उत्तर देते हुए कहा कि यत्नपूर्वक, सावधानीपूर्वक चलो, यत्नपूर्वक चेष्टा करो, यत्नपूर्वक बैठो, यत्नपूर्वक ही विश्राम आदि करो, यत्नपूर्वक ही भोजन करो तथा यत्नपूर्वक ही हित-मित प्रिय वचन बोलो। यत्नपूर्वक व्यवहार करने वाले को पाप का बंध नही होता। क्योंकि जिसके जीवन में यत्न या प्रयत्न रूपी समितियां है वह पापों से बंधता नहीं है। मुनिराज ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, तथा व्युत्सर्ग आदि 5 समितियों का पालन करते हैं अर्थात् वे चलने में, बोलने में, वस्तु को इधर-उधर उठाकर रखने में तथा मलमूत्र आदि का विसर्जन करते समय
SR No.034459
Book TitleAnuvrat Sadachar Aur Shakahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLokesh Jain
PublisherPrachya Vidya evam Jain Sanskriti Samrakshan Samsthan
Publication Year2019
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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