SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दृष्टि को भोग बन्ध का कारण नहीं 85 १९ सम्यग्दृष्टि को भोग बन्ध का कारण नहीं चौथे और पाँचवें गुणस्थान में रहनेवाला जीव भोग भोगता है तो क्यों भोगता है? उसमें उसे बन्ध नहीं, यह किस अपेक्षा से कहा जाता है ? इन प्रश्नों का स्पष्टीकरण करते हैं। इन्द्रियजन्य सुख वास्तव में तो दुःख ही है। पंचाध्यायी उत्तरार्ध श्लोक २३९ : अन्वयार्थ 'क्योंकि :सुख जैसे ज्ञात होनेवाले ये इन्द्रियजन्य सुख, दुःख रूप फल को देनेवाले होने से दुःख रूप ही है। इस कारण से वे सुखाभास हैं और त्यागने योग्य हैं। सर्वथा अनिष्ट उन दुःखों के जो कर्म हेतु (निमित्त) हैं, वे भी त्यागने योग्य हैं (अर्थात् दुःखों के निमित्त जो कर्म हैं वे भी त्यागने योग्य हैं) ' जो जीव अज्ञानी हैं, उन्हें तो इन्द्रियजन्य सुख रूप सुखाभास प्रिय होने से नियम से दुःख रूप ही है क्योंकि दु:ख के जो कारण हैं, वैसे कर्म ऐसे सुखों के प्रति आकर्षण से और ऐसे सुखों को रच-पच कर भोगने से बन्धते हैं। कालान्तर में ये दुःख देनेवाले ही बनते हैं। आत्म ज्ञानी ऐसे सुखों को उपेक्षा भाव से अपनी निर्बलता समझकर भोगता है। इस कारण उसे अल्प बन्ध होता है। परन्तु उस अल्प को अपेक्षा से नहींवत् कहा जाता है अर्थात् बन्ध नहीं होता ऐसा ही कहा जाता है क्योंकि उसे उस सुख में 'मैंपन' नहीं होता। जैसे रोगी को दवा के प्रति आदर रोग के मिटने तक ही होता है उसी प्रकार आत्म ज्ञानी को भी इन्द्रियजन्य सुख का आदर अपने पुरुषार्थ की निर्बलता है, तब तक ही होता है और आत्म ज्ञानी ऐसे सुख को सेवन करता हुआ भी उसे अपने पुरुषार्थ की निर्बलता समझकर पुरुषार्थ में शक्ति स्फुरित करने को अन्तर से उद्यम करता है। इसलिये इसी अपेक्षा से उन सुखों को भोगने के बावजूद वे उसे बन्धनकारक नहीं हैं ऐसा कहा जाता है। श्लोक २५६ : अन्वयार्थ :- 'जैसे जोंक को दूषित रक्त चूसने से तृष्णा के बीजभूत रति देखने में आती है, इसी प्रकार (अज्ञानी) संसारी जीवों में भी उन विषयों में सुहित (अच्छा मानने से, आदर होने से, आकर्षण होने से) मानने से तृष्णा के बीजभूत रति (आसक्ति) देखने में आती है।' विषयों की ऐसी आसक्ति छोड़ने योग्य है, यह बात अवश्य ध्यान में रखने जैसी है, क्योंकि श्लोक २५८ : अन्वयार्थ :- 'सम्पूर्ण कथन का सारांश यह है कि यहाँ जगत जिसे सुख कहता है, वह सर्व दु:ख ही है तथा वह दुःख आत्मा का धर्म नहीं होने से सम्यग्दृष्टियों को उस दुःख रूप सांसारिक सुखों की अभिलाषा नहीं होती।' अर्थात् सम्यग्दृष्टियों को सुख के आकर्षण का अभिप्राय नहीं होता ।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy