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________________ सम्यग्दर्शन का लक्षण 83 १८ सम्यग्दर्शन का लक्षण अब सम्यग्दर्शन का लक्षण बतलाते हैं; पंचाध्यायी उत्तरार्ध के श्लोक - श्लोक २१५ : अन्वयार्थ :- “केवल आत्मा की उपलब्धि (अर्थात् 'मैं आत्मा हूँ ऐसी समझ) भी सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं बन सकती परन्तु यदि वह उपलब्धि 'शुद्ध' विशेषण सहित हो अर्थात् शुद्ध आत्मोपलब्धि हो (अर्थात् मात्र ‘शुद्धात्मा' में ही मैंपन' हो) तभी सम्यग्दर्शन का लक्षण हो सकता है। यदि वह आत्मोपलब्धि अशुद्ध हो तो वह सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं बन सकती।" हमने जो भेद ज्ञान की बात पूर्व में की है, वही यहाँ बतलायी है। भेद ज्ञान रूप स्व-पर दो अपेक्षा से होता हैं। एक, परद्रव्य रूप कर्म, शरीर, घर, मकान, दुकान, पत्नी, पुत्र इत्यादि से मैं भिन्न हूँ। ऐसा अन्य द्रव्य के साथ का भेद ज्ञान रूप स्व-पर होता है और उसके बाद का जो दूसरा स्व-पर है, वही सम्यग्दर्शन का कारण और लक्षण है और वह दूसरे भेद ज्ञान रूप स्व-पर में, स्व रूप मात्र शुद्धात्मा वह स्व और पर रूप समस्त अशुद्ध भाव जो कि कर्म (पुद्गल) के निमित्त से होते हैं; वे अशुद्ध भाव होते तो हैं मुझमें ही अर्थात् आत्मा वह अशुद्ध भाव रूप परिणमता है, परन्तु उन भावों में 'मैंपन' करने योग्य नहीं है, क्योंकि वे पर के निमित्त से होते हैं। दूसरे वे क्षणिक हैं क्योंकि वे सिद्धों की आत्मा में उपस्थित नहीं इसलिये वे भाव त्रैकालिक नहीं हैं। इसलिये मात्र त्रिकाली ध्रुव रूप शुद्धात्मा जो तीनों काल में प्रत्येक जीव में उपस्थित है और उसी अपेक्षा से ‘सभी जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं' - ऐसा कहा जाता है। उस भाव में ही अर्थात् उस 'शुद्धात्मा' में ही 'मैंपन' (एकत्व, तादात्म्य) करने से सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। इसलिये शुद्ध आत्मा की उपलब्धि को सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है। श्लोक २२१ : अन्वयार्थ :- 'वस्तु (अर्थात् पूर्ण वस्तु, उसका कोई एक भाग नहीं) सम्यग्ज्ञानियों को सामान्य रूप से (परम पारिणामिक भाव रूप से, शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के विषय रूप से, शुद्धात्म रूप से अर्थात् कारण शुद्ध पर्याय रूप से) अनुभव में आती है, इसलिये वह वस्तु (अर्थात् पूर्णवस्तु) केवल सामान्य रूप से शुद्ध कही जाती है तथा विशेष भेदों की अपेक्षा से अशुद्ध कहलाती है।' भावार्थ :- “मिथ्या दृष्टि जीव की राग तथा पर के साथ एकत्व बुद्धि रहने से पर वस्तु में इष्ट-अनिष्टपने की कल्पना रहा करती है तथा वह ऐसे अज्ञानमय राग-द्वेष के कारण वस्तु के वस्तुपने का प्रतिभास न करके मात्र इष्ट-अनिष्टपने से ही (अर्थात् मात्र विशेष भावों का ही अनुभव करता
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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