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________________ नव तत्त्व की सच्ची श्रद्धा का स्वरूप 81 अर्थात् वे नौ तत्त्व ही परम पारिणामिक भाव के बने हुए होने से अर्थात् ध्रुव रूप शुद्धात्मा ही उन नौ तत्त्व रूप परिणमित हुआ होने से वह उन नौ तत्त्वों में छिपा हुआ है अर्थात् उन नौ तत्त्वों में से अशुद्धि को गौण करते ही दृष्टि के विषय रूप शुद्धात्मा हाज़िर ही है। श्लोक १८९ : अन्वयार्थ :- 'पुण्य और पाप जोड़कर इन सात तत्त्वों को ही नौ पदार्थ कहे गये है, तथा भूतार्थ नय से आश्रय किये हुए सम्यग्दर्शन के वास्तविक विषय हैं।' अर्थात् दृष्टि के विषय रूप हैं। ___ भावार्थ :- “पूर्व में श्लोक १८६ में कहा गया था कि नौ तत्त्वों से शुद्धात्मा कोई अलग पदार्थ नहीं है, परन्तु उन नौ तत्त्व सम्बन्धी विकारों को छोड़ने पर (गौण करने पर) वे नौ तत्त्व ही शुद्ध है (परम पारिणामिक भाव रूप शुद्धात्मा है)। नौ तत्त्व सम्बन्धी विकारों को किस प्रकार छोड़ा जाये, उसका उपाय इस गाथा में दर्शाया है कि भूतार्थ नय द्वारा उन नौ तत्त्वों का आश्रय करना सम्यग्दर्शन का विषय है। श्री समयसार की गाथा ११ में भी कहा है कि व्यवहार नय अभूतार्थ है तथा शुद्ध नय भूतार्थ है ऐसा ऋषीश्वरों ने (भगवान ने) दर्शाया है। जो जीव भूतार्थ का आश्रय करता है, वह निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।' तत्पश्चात् इसी शास्त्र की गाथा १३ में कहा है कि 'भूतार्थ नय से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर-निर्जरा-बन्ध और मोक्ष ये नौ तत्त्व सम्यक्त्व हैं।' तथा इस गाथा की टीका में कहा है कि इन नौ तत्त्वों में भूतार्थ नय से एक जीव ही प्रकाशमान है, ऐसे उस एकपने को प्रकाशित करते शुद्ध नय द्वारा अनुभव में आता है और जो यह अनुभूति, वह आत्मख्याति ही है तथा आत्मख्याति वह सम्यग्दर्शन है। इस गाथा में 'भूतार्थ नय से आश्रय किये हए नौ पदार्थ सम्यग्दर्शन का वास्तविक विषय है। ऐसा कहा है परन्तु वह मात्र कथन पद्धति का भेद है-आशय भेद नहीं। यहाँ भूतार्थ नय से आश्रय किये हुए नौ पदार्थ सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है' ऐसा कहने का कारण यह है कि शंकाकार ने प्रथम श्लोक १४२ से १४९ में नौ पदार्थ बन नहीं सकते ऐसा कहा था और तत्पश्चात् श्लोक १७९१८० में इन नौ पदार्थों को आत्मा से सर्वथा भिन्न होना कहा था, ये दोनों कथन दोषयुक्त हैं ऐसा दृढ़ करने के लिये ऐसी पद्धति यहाँ ग्रहण की है। आगे श्लोक २१८-२१९ में शंकाकार फिर कहता है कि जब नौ तत्त्वों में सम्यग्दृष्टि को निश्चय से मात्र आत्मा की उपलब्धि होती है और वही शुद्ध उपलब्धि है तो फिर सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) नौ पदार्थ किस प्रकार बन सकेंगे? उसका समाधान श्लोक २२० से २२३ में ऐसा किया है कि मिथ्या दृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों को नौ पदार्थों का अनुभव तो है परन्तु मिथ्या दृष्टि को वह (अनुभव) विशेष रूप (अर्थात् विभाव भाव रूप पर्याय रूप)
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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