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सम्यग्दर्शन की विधि
हैं ऐसा जानकर हे योगी! अन्य विकल्प न करो।' प्रश्न :- ऊपर बतलायी गयी गाथाओं के सन्दर्भ में विचारेंगे तो लगेगा कि दिखते रूप से तो संसारी जीव शरीरस्थ है और सिद्ध के जीव मुक्त हैं, तो संसारी को सिद्ध जैसा कहा वह किस अपेक्षा से? उत्तर :- वह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से, जैसे कि संसारी जीव शरीरस्थ होने पर भी. उनकी आत्मा एक जीवत्व रूप पारिणामिक भाव रूप होती है। वह जीवत्व रूप भाव छद्मस्थ को (अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय से) अशुद्ध होता है और वह अशुद्ध जीवत्व भाव अर्थात् अशुद्ध रूप से परिणमित आत्मा में से अशुद्धि को (विभाव भाव को) गौण करते ही, जो जीवत्व रूप भाव शेष रहता है, उसे ही परम पारिणामिक भाव', 'ध्रुव भाव', 'शुद्धात्मा', 'कारण परमात्मा', कारण शुद्ध पर्याय', 'सिद्धसदृश भाव', 'स्वभाव भाव' – इत्यादि अनेक नामों से पहचाना जाता है और उस भाव की अपेक्षा से ही सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध समान ही हैं - ऐसा कहा जाता है; अब हम इसी बात को दृष्टान्त से देखेंगेपहला दृष्टान्त :- जैसे गन्दले पानी में शुद्ध पानी छिपा हुआ है, वैसे निश्चय से जो कोई उसमें फिटकरी घुमाता है तो कुछ समय के बाद उसमें (पानी में) रही हुई गन्दगी रूप मिट्टी तल में बैठ जाने से, पूर्व का गन्दा पानी स्वच्छ रूप ज्ञात होता है। इसी प्रकार जो अशुद्ध रूप (राग-द्वेष रूप) परिणमित आत्मा है, उसमें, विभाव रूप अशुद्ध भाव को प्रज्ञा छैनी से = बुद्धिपूर्वक गौण करते ही जो शुद्धात्मा ध्यान में आता है अर्थात् ज्ञान में विकल्प रूप आता है, उसे भाव भासन कहते हैं और शुद्धात्मा की अनुभूति होते ही जीव को सम्यग्दर्शन होता है। वह जीव जो पहले शरीर में एकत्व करता था अब शुद्ध आत्म रूप में (स्वभाव में = स्वरूप में) एकत्व करते ही 'मैपन' करते ही सम्यग्दर्शन का अधिकारी होता है; यह विधि है सम्यग्दर्शन की। अर्थात् जो जीव राग-द्वेष रूप परिणमित होने पर भी केवल शुद्धात्मा में ही (द्रव्यात्मा में ही= स्वभाव में ही) 'मैंपन' (एकत्व) करता है और उसी का अनुभव करता है, वही जीव सम्यग्दृष्टि है। बस यही सम्यग्दर्शन की विधि है। दूसरा दृष्टान्त :- जैसे दर्पण में अलग-अलग प्रकार के अनेक प्रतिबिम्ब होते हैं परन्तु उन प्रतिबिम्बों को गौण करते ही स्वच्छ दर्पण दृष्टि में आता है। इसी प्रकार आत्मा में अर्थात् ज्ञान में जो ज्ञेय होते हैं, उन ज्ञेयों को गौण करते ही निर्विकल्प रूप ज्ञान का अर्थात् 'शुद्धात्मा' का अनुभव होता है; यह ही सम्यग्दर्शन की विधि है। इसी विधि से अशुद्ध आत्मा में भी सिद्ध समान शुद्धात्मा का निर्णय करना और उसी के साथ एकत्व करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है।