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प्रस्तावना संसार के तमाम प्रपंचों से यथासम्भव दूर रहते हुए सिर्फ आत्म साधना में लीन और ज़रूरी तथा गैरज़रूरी का फ़र्क समझने में समर्थ चिन्तक जयेशभाई शेठ की कृति ‘सम्यग्दर्शन की विधि' उस अनुभव की एक प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है जिससे वे निरंतर गुज़रते रहे हैं। अपने अनुभव को सीधे-सीधे पाठक को सौंपने के पूर्व उन्होंने उसे कुन्दकुन्द (दूसरी सदी ईस्वी), जोइन्दु (छठी सदी ईस्वी) जैसे आत्म साधकों से लेकर पं. राजमल (१६वीं सदी ईस्वी) जैसे विद्वानों के ग्रन्थों की कसौटी पर कसा है। सब तरह से खरा उतरने पर ही बहजन के हित और बहुजन के सुख के लिये उन्होंने उसके प्रकाशन की सहमति दी है।
पस्तक के पीछे लेखक की एक सार्वभौमिक, सार्वजनीन दृष्टि है। वह मात्र आत्मा की बात करती है। वह किसी संकीर्ण सोच में कैद नहीं है। जीवन के सिद्धान्त पक्ष और व्यवहार पक्ष दोनों पर उसने एक निश्छल तटस्थता से विचार किया है।
पुस्तक में अन्त:सलिला की तरह बहती हुई गुजराती भाषा के लहज़े और कुछ गुजराती शब्दों ने उसकी हिन्दी को एक टटकेपन से सम्पन्न किया है। गुजराती के ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें हिन्दी में आसानी से समझा जा सकता है। इनसे हिन्दी का शब्द भंडार और समृद्ध ही होगा।
मुझे लगता है, लेखक का सम्पर्क, सोच और रचनाकर्म उसकी साधना को दूसरों में संक्रमित करने में भी समर्थ है। उसके सहयोग में रह रहे शैलेशभाई शाह की जीवनचर्या और व्यवहार को देखकर मैं यही संकेत ग्रहण करता हूँ। दूसरों में अपने व्यक्तित्व का ऐसा संक्रमण
और संप्रेक्षण कर पाना तभी सम्भव है जब लेखक की ख़ुद की जीवनचर्या, आत्म साधना एवं जीवन उसके लेखन से भी बड़ा तथा मुख्य हो और लेखन उसका एक बायप्रोडक्ट भर हो। कालजयी लेखन हमेशा बायप्रोडक्ट ही होता है।
डॉ. जयकुमार जलज ३०, इन्दिरा नगर, रतलाम