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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक
जाननेवाला कोई जैन ही सच्चा तत्त्वज्ञानी तथा स्याद्वादी कहलाता है। इससे अन्य प्रकार से वस्तु स्वरूप को जाननेवाला पुरुष सच्चा तत्त्व ज्ञानी या स्याद्वादी नहीं कहा जा सकता। वह सिंहमाणवक कहलाता है अर्थात् जैसे बिल्ली को सिंह कहा जाता है परन्तु वास्तव में वह सिंह नहीं किन्तु बिल्ली ही है। उपरोक्तानुसार तत्त्व को न जानकर अन्यथा प्रकार से जाननेवाले पुरुषों को भी उपचार से ही तत्त्व ज्ञानी कहा जा सकता है। वास्तव में नहीं।'
यह बात लक्ष्य में लेने योग्य है कि जो कोई यहाँ बतायी गयी विधि से वस्तु व्यवस्था न मानते हों, उन्हें नियम से मिथ्यात्वी ही समझना चाहिये। आगे भी आचार्य भगवन्त यही वस्तु व्यवस्था पुष्ट करते हैं। जैसे कि -
श्लोक ३३१ : भावार्थ :- ‘तद् भाव और अतद्भाव को (परस्पर) निरपेक्ष मानने से पूर्वोक्त कार्य-कारण भाव के अभाव का प्रसंग आता है, परन्तु यदि दोनों को (परस्पर) सापेक्ष माना जाये तो ‘तदिदं' (यह वैसा ही है) तदिदं न' (यह वैसा नहीं) इस आकारवाले तत् भाव और अतत् भाव प्रतीति में कार्य-कारण तथा क्रिया-कारक ये सब सिद्ध हो जाते हैं।'
श्लोक ३३२ : अन्वयार्थ :- ‘सारांश यह है कि सत्-असत् की तरह तत् तथा अतत् भी विधि निषेध रूप होते हैं परन्तु निरपेक्ष रूप से नहीं, क्योंकि परस्पर सापेक्ष रूप से तत्-अतत् ये दोनों भी तत्त्व हैं।' अन्यथा निरपेक्ष रूप से वह अतत्त्व ही है यह समझना आवश्यक है।
श्लोक ३३३ : अन्वयार्थ :- ‘पूर्वोक्त कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिस समय केवल तत् की विधि मुख्य होती है, उस समय कथंचित् अपृथक् होने के कारण से अतत् गौण हो जाता है। इसलिये वस्तु सामान्य रूप से तन्मात्र कहलाती है।' यही विधि है त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की प्राप्ति की।
श्लोक ३३४ : अन्वयार्थ :- ‘तथा जिस समय पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से केवल अतत्, यह विवक्षा करने योग्य विधि मुख्य होती है, उस समय तत् वह स्वयं गौण होने से अविवक्षित रहता है इसलिये वस्तु को अतन्मात्र कहने में आता है।'
___ ऐसा है जैन सिद्धान्तानुसार वस्तु का स्वरूप, जो समझे बिना विकृत धारणाओं का अन्त शक्य ही नहीं है। विकृत धारणाओं का अन्त मोक्षमार्ग के प्रवेश के लिये अत्यन्त आवश्यक है, अर्थात् सम्यग्दर्शन के लिये विकृत धारणाओं का अन्त और सम्यक् धारणा का स्वीकार बहुत ज़रूरी है।