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सम्यग्दर्शन की विधि
दर्शाया है वहाँ भी अर्थात उसका भी यह वास्तविक अर्थ है कि जो परिणाम पहले थेवे-वे परिणाम ही बाद में होते रहते हैं।'
। अर्थात् जो द्रव्य रूप ध्रौव्य है, वह ही प्रत्येक पर्याय में स्वयं ही कार्य रूप परिणमता है और उसमें रही हई सदृशता से (सामान्य अपेक्षा से) उसका तद् भाव से नाश न होने से उसे ध्रौव्य कहते हैं। जैसे कि ज्ञान आकारान्तरपन पाने पर भी ज्ञानपने का नाश न होने से उस आकार में रहे हुए ज्ञान को (सामान्य को) ही ध्रौव्य कहा जाता है अर्थात् टंकोत्कीर्ण कहा जाता है।
श्लोक २०५ : अन्वयार्थ :- 'जैसे पुष्प की गन्ध वह परिणाम है तथा वह गन्ध गुण परिणमन कर रहा है इसलिये गन्ध (गुण) अपरिणामी नहीं है तथा निश्चय से निर्गन्ध अवस्था से पुष्प गन्धवाला हुआ है ऐसा भी नहीं है।'
इस कारण से कहा जा सकता है कि ध्रौव्य रूप द्रव्य/गुण स्वयं ही पर्याय रूप उत्पन्न होता है और तब ही पूर्व पर्याय का व्यय होता है; इसलिये अभेद नय से द्रव्य को उत्पाद-व्ययध्रौव्य रूप कहा जाता है और भेद नय से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप तीनों सत् की पर्याय कही जाती है, यह भेद रूप पर्याय है। यही भाव आगे भी समझाते हैं।
श्लोक २०७ : अन्वयार्थ :- 'निश्चय से सर्वथा नित्य कोई सत् है-गुण कोई है ही नहीं तथा केवल परिणति रूप व्यय तथा उत्पाद ये दोनों उस सत् से अतिरिक्त अर्थात् भिन्न है, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिए क्योंकि' भेद नय से जो ऊपर भेद रूप उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को पर्याय रूप से समझाने से किसी को ऐसी आशंका उत्पन्न होती है कि क्या द्रव्य और पर्याय भिन्न है ? तो कहते हैं कि ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिये।
श्लोक २०८ : अन्वयार्थ :- ‘ऐसा होने पर सत् को भिन्नतायुक्त देश का प्रसंग आने से सत् वह न गुण, न परिणाम अर्थात् पर्याय और न द्रव्य रूप सिद्ध हो सकेगा, सर्व विवादग्रस्त हो जायेगा।'
भावार्थ :- ‘गुणों को न मानकर द्रव्य को सर्वथा नित्य तथा उत्पाद-व्यय को द्रव्य से भिन्न केवल परिणति रूप मानने से द्रव्य तथा पर्यायों को भिन्न-भिन्न प्रदेशीपने का प्रसंग आयेगा तथा सत्, द्रव्य-गुण व पर्यायों में से किसी भी रूप से सिद्ध नहीं हो सकेगा और इसलिये सत्, द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक न होने से उस सत् का भी क्या स्वरूप है ? यह भी निश्चित नहीं हो सकेगा; इसलिये द्रव्य-गुण-पर्याय और सत् स्वयं वे सब विवादग्रस्त हो जायेंगे।' यहाँ कहे अनुसार यदि