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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक और इसी कारण वैसी मान्यता जैन सिद्धान्त बाह्य है और मिथ्यात्व है, इसलिये ऐसी धारणा किसी की हो तो वह शीघ्रता से सुधार लेनी चाहिये, अपेक्षा से सब कहा जाता है परन्तु वैसा एकान्त से माना नहीं जाता। 37 भावार्थ :- ‘शंकाकार का कहना ऐसा है कि यदि अवगाहन गुण की विचित्रता से द्रव्य में केवल आकार से आकारान्तर ही हुआ करता है तो द्रव्य की पूर्व- - उत्तर अवस्थाओं में अभेदता होने के कारण उसमें (यहाँ शंकाकार द्रव्य-पर्याय रूप वस्तु को एक अभेद रूप अनुस्युति से रचित प्रवाह रूप नहीं मानता ) उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य नहीं बन सकेगा तथा किसी भी प्रकार का कार्यकारण भाव (यहाँ शंकाकार कार्य-कारण भाव को भेद रूप मानता है, भिन्न मानता है) ही सिद्ध नहीं हो सकेगा तथा यदि गुणांश के तदवस्थ रहने पर भी अगुरु-लघु गुण के निमित्त से उसमें भूत्वा-भवन रूप परिणमन होता रहता है (यहाँ शंकाकार ध्रौव्य को / गुण को अपरिणामी मानता है- उसे अगुरु-लघु गुण के निमित्त से पर्याय मानता है और उसमें से पर्याय निकलती है कि जो ध्रौव्य से/गुण से भिन्न है ऐसा मानता है) तो यह आपत्ति आयेगी कि - गुण अपने अंशों से कम होने पर दुर्बल और अपने अंशों से बढ़ने पर क्या बलवान नहीं होंगे? समाधान :- शंकाकार का उपरोक्त कहना ठीक नहीं है क्योंकि हमने पहले ही स्वत: सिद्ध द्रव्य को भलीभाँति परिणामी सिद्ध किया है अर्थात् द्रव्य स्वतः सिद्ध होने से, कथंचित् नित्यानित्यात्मक द्रव्य में ही उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य घटित हो सकते हैं। (अर्थात् द्रव्य स्वयं ही पर्याय रूप परिणमता है और इस कारण से पर्याय द्रव्य की ही बनी हुई है और द्रव्य पर्याय में ही छिपा हुआ है। अर्थात् पर्याय रूप विशेष भाव को गौण करते ही सामान्य रूप द्रव्य अनुभव में आता है)। परन्तु सर्वथा नित्य या अनित्य पदार्थ में नहीं । सारांश यह है कि आकार से आकारान्तर रूप होने से उत्पाद, व्यय की और वस्तुता से (सामान्य भाव अपेक्षा से) तद्वस्थ रूप होने से ध्रौव्यांश की (सामान्य भाव की) सिद्धि होती है। इसलिये उक्त प्रकार से (ऐसी रीति से) द्रव्य को कथंचित् नित्यानित्यात्मक मानने से उत्पादादि त्रय की तथा कारण-कार्य भाव की सिद्धि नहीं होती, ऐसी शंका निरर्थक है। यहाँ दृष्टान्त-' श्लोक १९६ : अन्वयार्थ :- 'जैसे सोने के अस्तित्व में ही कुण्डलादिक अवस्थायें उत्पन्न होती हैं और वे कुण्डलादिक अवस्थायें होने से ही नियम से उत्पादादिक तीनों सिद्ध होते हैं।' अर्थात् द्रव्य को परिणामी मानने से ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप व्यवस्था शक्य है, अन्यथा नहीं। ऐसी है जैन सिद्धान्त की वस्तु व्यवस्था।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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