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सम्यग्दर्शन की विधि
द्रव्य की बात तो निराली ही है, तो उन्हें हम बतलाते हैं कि मात्र पुद्गल द्रव्य ही नहीं, परन्तु छहों द्रव्य की द्रव्य-गुण-पर्याय रूप अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप वस्तु व्यवस्था तो एक समान ही है। यदि जीव द्रव्य की कोई अन्य व्यवस्था होती तो भगवान ने और आचार्य भगवन्तों ने शास्त्रों में अवश्य बतलायी होती, परन्तु वैसा न होने से ही कुछ बतलाया नहीं है; इसलिये ऐसे मिथ्यात्व रूप आग्रह को छोड़कर वस्तु व्यवस्था जैसी है वैसी ही मानना आवश्यक है, अन्यथा उस जीव ने अनन्त संसारी, अनन्त दु:खी होने को ही आमन्त्रण दिया है। उस पर करुणा भाव से ही यह लिखा जा रहा है।
भावार्थ :- ‘परिणमन की अपेक्षा से जो गुण उत्पाद-व्यययुक्त कहलाते हैं, वे ही गुण गुणत्व सामान्य की अपेक्षा से नित्य कहलाते हैं। उन दोनों अपेक्षाओं से द्रव्य से अभिन्न रूप गुण भी उत्पाद-व्यय और ध्रौव्ययुक्त कहे हैं...'
मिट्टी में किसी गुण का नाश होता है और कोई गुण उत्पन्न होता है - ऐसी शंका व्यक्त करने पर आगे की गाथा में बतलाते हैं कि -
श्लोक १२३ : अन्वयार्थ :- ‘इस विषय में यह उत्तर ठीक है कि इस मृतिका का (मिट्टी का पक्का बर्तन रूप होने का) ऐसा होने पर क्या उसका मृतिकापन (मिट्टीपन) नाश हो जाता है ? यदि (मृतिकापन) नष्ट नहीं होता तो वह नित्य रूप क्यों नहीं होगा?' अर्थात् इस अपेक्षा से द्रव्य नित्य है, ध्रुव है, अन्यथा नहीं।
भावार्थ :- ‘कच्ची मिट्टी को पकाने पर प्रथम के मिट्टी सम्बन्धी (सभी) गुण नष्ट होकर नवीन पक्व गुण पैदा होते हैं इस प्रकार माननेवाले के लिये यह उत्तर ठीक है कि - मृतिका की घटादि अवस्था होने पर, क्या उसका पृथ्वीपन-मृतिकापन भी नष्ट हो जाता है? यदि वह मृतिकापन नष्ट नहीं होता तो वह मृतिकापन क्या नित्य नहीं है?' अर्थात् नित्य ही है, इस अपेक्षा से द्रव्य को नित्य-ध्रुव इत्यादि कहा जाता है।
अब शंकाकार शंका करता है कि द्रव्य और पर्याय को सर्वथा भिन्न मानने में क्या दोष है ? उत्तर -
__ श्लोक १४२ : अन्वयार्थ :- ‘अनु शब्द का अर्थ है - जो बीच में कभी भी स्खलित नहीं होनेवाले प्रवाह से (अनुस्यूति से रचित पर्यायों का प्रवाह, वही द्रव्य) वर्त रहा हो तथा अयति' वह क्रियापद गति अर्थवाली 'अय' धातु का रूप है इसलिये अविच्छिन्न प्रवाह रूप से जो गमन कर रहा है वह अन्वयार्थ की अपेक्षा से अन्वय शब्द का अर्थ द्रव्य है।'