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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक व्यय, ध्रौव्य को सत् के परिणाम कहने में आता है; यदि ऐसा न मानकर सत् में ही उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्य मानने में आवे तो असत् की उत्पत्ति तथा सत् के विनाश को दुर्निवार मानना पड़ेगा।' __ श्लोक ९१ : अन्वयार्थ :- ‘इसलिये नियम से द्रव्य कथंचित् किसी अवस्था रूप से उत्पन्न होता है तथा किसी अन्य अवस्था से नष्ट होता है परन्तु परमार्थ रूप से (द्रव्यार्थिक नय से) निश्चय से वे दोनों ही नहीं हैं अर्थात् द्रव्य न तो उत्पन्न होता है तथा न नष्ट होता है।' __ अर्थात् द्रव्य दृष्टि से तो वह नित्य त्रिकाली ध्रुव रूप ही ज्ञात होता है, उसमें कोई उत्पादव्यय ज्ञात होते ही नहीं क्योंकि उन पर दृष्टि ही नहीं, दृष्टि केवल त्रिकाली ध्रुव द्रव्य पर ही है इसलिये उत्पाद-व्यय गौण हो जाते हैं और नित्यत्व मुख्य हो जाता है, यही विधि है पर्याय के अभाव की। __ भावार्थ :- ‘इसलिये द्रव्य, पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से नवीन-नवीन अवस्था रूप से उत्पन्न तथा पूर्व-पूर्व अवस्थाओं से नष्ट कहने में आता है, परन्तु द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य, न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है।' इस भाव को अपेक्षा से ध्रुव भाव, अपरिणामी भाव भी कहा जा सकता है परन्तु एकान्त से नहीं। __ श्लोक १०८ : अन्वयार्थ :- ‘जैनधर्म का यह सिद्धान्त है कि जैसे द्रव्य नित्य-अनित्यात्मक है, उसी प्रकार गुण भी अपने द्रव्य से अभिन्न होने के कारण नित्य-अनित्यात्मक है-ऐसा समझना।' भावार्थ :- '...द्रव्य दृष्टि से वे गुण परस्पर में तथा द्रव्य से अभिन्न ही है..' श्लोक ११० : अन्वयार्थ :- ‘जैसे ज्ञान, घट के आकार से पट के आकार रूप होने के कारण परिणमनशील है तो क्या उसका ज्ञानपन नष्ट हो जाता है ? यदि वह ज्ञानत्व नष्ट नहीं होता, तो इस अपेक्षा से नित्य क्यों सिद्ध नहीं होगा? अर्थात् अवश्य ही (नित्य सिद्ध) होगा।' ___ यहाँ समझना यह है कि कोई ऐसा कहे कि ज्ञान गुण तो अकबन्ध-कूटस्थ-अपरिणामी रहता है और उसमें से ज्ञान की पर्याय निकलती है, तो ऐसी मान्यता से तो ज्ञान गुण का ही अभाव हो जायेगा क्योंकि ज्ञान गुण परिणमनशील है, अर्थात् ज्ञान गुण स्वयं किसी न किसी कार्य बिना रहता ही नहीं, वह ज्ञान गुण स्वयं ही उस कार्य रूप परिणमता है, अर्थात् स्व-पर को जानने रूप परिणमता है और उस स्व-पर रूप प्रतिबिम्ब को गौण करते ही सामान्यपने से ज्ञान गुण वैसा का वैसा ही ज्ञात होता है, इसलिये कहा जाता है कि वह ज्ञानपने का उल्लंघन करता ही नहीं, इस अपेक्षा से उसे कूटस्थ अथवा अपरिणामी कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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