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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तु व्यवस्था दर्शाते श्लोक नहीं है तथा उनके साधक प्रमाण का अभाव इसलिये है कि - उन पक्षों की सिद्धि के लिये इस लोक में कोई दृष्टान्त भी नहीं मिल सकता।' 27 अर्थात् द्रव्य को परिणामी सिद्ध किया और फिर भी उसे टिकते भाव (स्थिरता के भाव) की अपेक्षा से अपरिणामी भी कहा जाता है परन्तु एकान्त से नहीं क्योंकि जैन सिद्धान्त में अनेकान्त की ही जय होती है, एकान्त की नहीं। श्लोक ८३-८४ : अन्वयार्थ :'जैसे आम के फल में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों पुद्गल द्रव्य के गुण अपने-अपने लक्षण से भिन्न हैं तथा निश्चय से वे सब अखण्ड देशी (द्रव्य) होने से किसी भी प्रकार से पृथक् भी नहीं किये जा सकते। वास्तव में जैसे विशेष रूप होने के कारण वे पर्याय दृष्टि से (भेद विवक्षा से) देश, देशांश, गुण और गुणांश रूप स्वचतुष्टय कहा जा सकता है तथा सामान्य रूप की अपेक्षा से अर्थात् द्रव्यार्थिक दृष्टि से (अभेद विवक्षा से) वे ही सब एक आलाप से एक अखण्ड द्रव्य कहे जा सकते हैं।' अर्थात् जो विशेष अपेक्षा से पर्याय है, वही सामान्य अपेक्षा से द्रव्य है, जैसे कि उपादान स्वयं ही कार्य रूप परिणमता है, यह बात तो सर्व विदित है, उसमें उपादान वही द्रव्य है और कार्य पर्याय है, इससे यह बात सिद्ध होती है कि द्रव्य स्वयं ही परिणमन करता है और द्रव्य स्वयं ही वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से पर्याय कहलाता है। जैसे मिट्टी का पिण्ड नष्ट होकर मिट्टी के घड़े रूप बनने से मिट्टी रूपी द्रव्य की एक पर्याय का नाश हुआ और नयी पर्याय का उत्पाद हुआ, परन्तु दोनों में मिट्टीपन तो कायम ही रहा, नित्य ही रहा, इस अपेक्षा से कूटस्थ रहा अपरिणामी रहा। मिट्टी रूप द्रव्य किसी अन्य द्रव्य रूप नहीं परिणमन करता, इसलिये उसे इस अपेक्षा से भी कूटस्थ अथवा अपरिणामी कहा जा सकता है और दूसरा, उस पिण्ड और घड़े में मिट्टीपन वैसा का वैसा ही रहता है, इस अपेक्षा से उसे कथंचित् कूटस्थ अथवा कथंचित् अपरिणामी कहा जा सकता है। एकान्त से अपरिणामी कहने पर तो वहाँ एक भाग अपरिणामी और एक भाग में परिणामी - ऐसा मानने से तो द्रव्य का ही नाश हो जायेगा। वह द्रव्य द्रवे भी नहीं, इसलिये उसका कुछ कार्य ही न मानने पर द्रव्यपने का ही नाश हो जायेगा। इस प्रकार उपादान से कार्य को भिन्न मानने से आकाशकुसुमवत, द्रव्य का ही अस्तित्व नहीं रहेगा और उसके कार्य का भी अस्तित्व नहीं रहेगा। इसलिये इसी प्रकार समझना कि उपादान स्वयं ही कार्य रूप परिणमित हुआ है और इस कारण से उस परिणाम में पूर्ण उपादान उपस्थित ही है। परिणाम ( कार्य ) स्वयं उपादान का ही
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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