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________________ नित्य चिन्तन कणिकाएँ आत्मार्थी को किसी भी मत - पन्थ - सम्प्रदाय - व्यक्ति विशेष का आग्रह, हठाग्रह, कदाग्रह, पूर्वाग्रह, अथवा पक्ष होना ही नहीं चाहिये क्योंकि वह आत्मा के लिये अनन्त काल की बेड़ी समान है। अर्थात् वह आत्मा को अनन्त काल भटकानेवाला है। आत्मार्थी के लिये ‘अच्छा वह मेरा' और 'सच्चा वह मेरा' होना अति आवश्यक है, जिस से वह आत्मार्थी अपनी मिथ्या मान्यताओं का त्याग कर सत्य को सरलता से ग्रहण कर सके। वही उसकी योग्यता कहलाती है। 231 • आत्मार्थी को दम्भ से हमेशा दूर ही रहना चाहिये । उसे मन-वचन और काया की एकता साधने का अभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिये और उस में अड़चन रूप संसार से बचते रहना चाहिये। आत्मार्थी को एक ही बात ध्यान में रखने योग्य है कि यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है और यदि इस मनुष्य भव में मैंने आत्म प्राप्ति नहीं की तो अब अनन्त, अनन्त, अनन्त... काल के बाद भी मनुष्य जन्म, पूर्ण इन्द्रियों की प्राप्ति, आर्य देश, उच्च कुल, धर्म की प्राप्ति, धर्म की देशना इत्यादि मिले, ऐसा नहीं है। बल्कि अनन्त, अनन्त, अनन्त... काल पर्यन्त अनन्त, अनन्त, अनन्त... दुःख ही प्राप्त होंगे। इसलिये यह अमूल्य दुर्लभ मनुष्य जन्म मात्र शारीरिक - इन्द्रियजन्य सुख और उसकी प्राप्ति के पीछे ख़र्च करने योग्य नहीं है। उस के एक भी पल को व्यर्थ न गँवाकर शीघ्रता से उसे मात्र और मात्र शाश्वत सुख ऐसे आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये ही लगाना योग्य है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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