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________________ 224 सम्यग्दर्शन की विधि विवेक द्वारा प्रथम पापों का त्याग करना और फिर एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से शुभ भाव में रहना कर्तव्य है। संवर भावना :- सच्चे (कार्यकारी) संवर की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है, इसलिये उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एकमात्र सच्चे संवर के लक्ष्य से द्रव्य संवर पालना। • निर्जरा भावना :- सच्ची (कार्यकारी) निर्जरा की शुरुआत सम्यग्दर्शन से ही होती है, इसलिये उसके लक्ष्य से पापों का त्याग करके एकमात्र सच्ची निर्जरा के लक्ष्य से यथाशक्ति तप करना। लोक स्वरूप भावना :- प्रथम, लोक का स्वरूप जानना, पश्चात् चिन्तवन करना कि मैं अनादि से इस लोक में सब प्रदेशों में अनन्त बार जन्मा और मरण को प्राप्त हुआ; मैंने अनन्त दुःख भोगे, अब कब तक यह सिलसिला चालू रखना है? अर्थात् इसके अन्त के लिये सम्यग्दर्शन आवश्यक है। अत: उसकी प्राप्ति का उपाय करना। दूसरे, लोक में रहे हुए अनन्त सिद्ध भगवन्त और संख्यात अरहन्त भगवन्त और साधु भगवन्तों की वन्दना करना और असंख्यात श्रावक-श्राविकाओं तथा सम्यग्दृष्टि जीवों की अनुमोदना करना, प्रमोद करना। बोधि दुर्लभ भावना :- बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन। अनादि से अपनी भटकन का यदि कोई कारण होवे तो वह है सम्यग्दर्शन का अभाव; इसलिये समझ में आता है कि सम्यग्दर्शन कितना दुर्लभ है, किन्हीं आचार्य भगवन्त ने तो कहा है कि वर्तमान काल में सम्यग्दृष्टि अंगुली के पोर पर गिने जा सकें इतने ही होते हैं। धर्म स्वरूप भावना :-वर्तमान काल में धर्म स्वरूप में बहुत विकृतियाँ प्रवेश कर चुकी हैं। इसलिये सत्य धर्म की शोध और उसका ही चिन्तवन करना ; पूरा पुरुषार्थ उसे प्राप्त करने में ही लगाना।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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