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सम्यग्दर्शन की विधि
द्रव्य - गुण व्यवस्था
संक्षेप में कहना हो तो कहेंगे कि द्रव्य, गुणों का समूह है और उस द्रव्य की वर्तमान अवस्था को पर्याय कहा जाता है।
प्रश्न :
गुणों का समूह अर्थात् गेहूँ की थैली समान या दूसरे किसी प्रकार ?
उत्तर :- वह गेहूँ की थैली जैसा नहीं। जैसे थैली में अलग-अलग गेहूँ है उसी प्रकार द्रव्य में गुण नहीं हैं, परन्तु वे गुण द्रव्य में, शक्कर में मिठास की तरह हैं अर्थात् द्रव्य के सम्पूर्ण भाग में (क्षेत्र में), , उसके प्रत्येक प्रदेश में (प्रदेश अर्थात् क्षेत्र का छोटे से छोटा अंश) हैं। द्रव्य के प्रत्येक प्रदेश में, उस द्रव्य के समस्त (अनन्तानन्त) गुण रहते हैं । दूसरे प्रकार से ऐसा कहा जा सकता है कि एक अखण्ड द्रव्य में रही हुई अनन्तानन्त विशेषताएँ उस द्रव्य के अनन्तानन्त गुण रूप से वर्णित की गई हैं। उन सब विशेषताओं के समूह को द्रव्य (वस्तु) रूप से बतलाया है, वह वस्तु (द्रव्य) तो अभेद - एक ही है परन्तु उसकी विशेषताओं को दर्शाने के लिये ही उसमें गुण भेद किया है, अन्यथा वहाँ कोई क्षेत्र भेद रूप गुण भेद है ही नहीं। वहाँ तो मात्र एक वस्तु में रही हुई अनन्तानन्त विशेषताओं को बतलाने के लिये ही गुण भेद का सहारा लिया है, वह वस्तु में वास्तविक कोई भेद है ही नहीं, क्योंकि वस्तु अभेद ही है; इसलिये उसे कथंचित् भेद - अभेद रूप बतलाया है अर्थात् वहाँ सर्वथा न तो भेद है और न तो अभेद है। वस्तु अपेक्षा से अभेद है और गुणों की अपेक्षा से भेद है। इसलिये उसे कथंचित् भेद - अभेद रूप बतलाया है।
इसका अर्थ यह है कि उस वस्तु में एक ही गुण है ऐसा नहीं, परन्तु उस वस्तु में अनन्तानन्त विशेषताएँ अर्थात् गुण हैं। इस अपेक्षा से ही भेद कहलाता है परन्तु वहाँ वस्तु में कुछ भी वास्तविक भेद नहीं, इस अपेक्षा से अभेद ही कहलाती है, इसलिये अभेद नय को ही कार्यकारी बतलाया और भेद नय मात्र वस्तु का स्वरूप समझाने के लिये बतलाया गया है। भेद रूप व्यवहार मात्र ही है क्योंकि निश्चय से वस्तु एक अभेद ही है।
यहाँ हम पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध के (पण्डित देवकीनन्दनजी नायक कृत हिन्दी टीका के आधार से) श्लोकों पर विचार करेंगे।
श्लोक ३५ : अन्वयार्थ :- 'दूसरे पक्ष में अर्थात् अखण्ड अनेक प्रदेशी वस्तु मानने में निश्चय से जो गुणों का परिणमन होता है, वह द्रव्य के सर्व प्रदेशों में समान होता है, और वह