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सम्यग्दर्शन की विधि
से) समस्त पर वृत्ति को - पर परिणति को उखाड़ता हुआ (अर्थात् अपूर्व निर्जरा करता हुआ) ज्ञान के पूर्ण भाव रूप होता हुआ वास्तव में सदा निरास्रव है।'
ऐसी है ज्ञानी की साधना - स्वयं मात्र शुद्धात्मा में ही 'मैंपन' करता हुआ और उसी की अनुभूति करता हुआ बुद्धिपूर्वक यानि प्रयत्नपूर्वक यानि पूर्ण जागृतिपूर्वक, जो भी उदय आता है, उसके सामने लड़ता है यानि उदय से परास्त हुए बिना, उदय में मिले बिना, स्वयं शुद्धात्मा में ही बारम्बार स्थिरता का प्रयत्न करता है और यदि वैसी स्थिरता अन्तर्मुहूर्त से अधिक हो जाये, तो ज्ञानी सर्व घाति कर्मों का नाश करके केवली हो जाता है और फिर कुछ काल में मुक्त हो जाता है। ऐसा है मोक्षमार्ग।
__ श्लोक १२० :- 'उद्यत ज्ञान (ज्ञानमात्र) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध नय में रहकर अर्थात् शुद्ध नय का आश्रय करके जो सदा एकाग्रपने का ही अभ्यास करते हैं (यानि शुद्धात्मा में ही 'मैंपन' करके, उसी का अनुभव करके, उसी में स्थिरता का अभ्यास करते हैं) वे निरन्तर रागादि से रहित चित्तवाले वर्तते हुए (यानि शुद्धात्मा में रागादि का कण भी नहीं और उसमें ही मैंपन' करते हए) बन्ध रहित ऐसे समयसार को (यानि अपने शुद्ध आत्म स्वरूप को) देखते हैं - अनुभव करते हैं।'
श्लोक १२२ :- ‘इस अधिकार का यही उद्देश्य है कि शुद्ध नय त्यागने योग्य नहीं (यानि मात्र शुद्ध नय में ही रहने योग्य है, क्योंकि उसमें आस्रव नहीं होता), क्योंकि उसके अत्याग से (कर्म का) बन्ध नहीं होता और उसके त्याग से ही बन्ध होता है।'
श्लोक १२३ :- ‘धीर और उदार (सर्वथा पर द्रव्यों का जिस में त्याग है, ऐसी शुद्धात्मा परम उदार है) जिसकी महिमा है ऐसे अनादि-निधन ज्ञान में (यानि त्रिकाली शुद्ध ज्ञान जो कि परम पारिणामिक भाव रूप ज्ञान सामान्य मात्र है, उसमें) स्थिरता को बाँधता हआ (यानि उसमें ही 'मैंपन' करता हुआ और उसका ही अनुभव करता हुआ) शुद्ध नय - जो कि कर्मों को मूल से नाश करनेवाला है - पवित्र धर्मी (सम्यग्दृष्टि) पुरुषों के कभी भी छोड़ने योग्य नहीं है (यानि निरन्तर ग्रहण करने योग्य है, उसमें ही स्थिरता करने योग्य है, उसका ही ध्यान करने योग्य है)। शुद्ध नय में स्थित उन पुरुषों को (यानि स्वात्मानुभूति में स्थित पुरुषों को) बाहर निकलते ऐसे अपनी ज्ञानकिरणों के समूह को (यानि कर्म के निमित्त से पर में जानेवाली ज्ञान की विशेष व्यक्तियों को) अल्पकाल में समेटकर पूर्ण ज्ञान घन के पुंज रूप (मात्र ज्ञान घन स्वरूप) एक, अचल शान्त तेज को - तेज पुंज को देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं।'