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________________ 194 सम्यग्दर्शन की विधि यहाँ यह समझना आवश्यक है कि आगम और अध्यात्म में ज़रा भी विरोध नहीं है क्योंकि आगम से जीव का स्वरूप 'जैसा है वैसा' समझकर अर्थात् जीव को सब नय से जानकर अध्यात्म रूप शुद्ध नय द्वारा ग्रहण करते ही सम्यग्दर्शन रूप आत्म ज्योति प्रगट होती है, प्राप्त होती है अर्थात् पर्याय में विशेष भाव को गौण करते ही एक रूप - अभेद रूप चिचमत्कार मात्र ज्योति अर्थात् सामान्य भाव रूप परम पारिणामिक भाव हाज़िर ही है जो कि सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय) है और उस में ही 'मैंपन' करने से स्वानुभूति प्रगट हो सकती है; यह सम्यग्दर्शन की विधि है। श्लोक ९ :- 'आचार्य शुद्ध नय का अनुभव करके कहते हैं कि इन सर्व भेदों को गौण करनेवाला जो शुद्ध नय (अर्थात् जीव में भेद रूप द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अथवा उदय-उपशम-क्षयोपशम रूप भावों को गौण करके परम पारिणामिक भाव रूप समयसार रूप शुद्ध नय) का विषयभूत चैतन्य-चमत्कार मात्र (ज्ञान मात्र = परम पारिणामिक भाव मात्र) तेज पुंज आत्मा का अनुभव होने पर नयों की लक्ष्मी उदय को प्राप्त नहीं होती (अर्थात् सब नय विकल्प रूप ही हैं, जबकि परम पारिणामिक भाव सर्व विशेष भाव रहित होने से अर्थात् उसमें कुछ भी विकल्प न होने से उसमें नय-निक्षेप, स्व-पर रूप भाव नहीं है। वहाँ मात्र एक अभेद भाव में ही 'मैंपन' है, इसलिये) प्रमाण अस्त को प्राप्त होता है और निक्षेपों का समूह कहाँ चला जाता है, वह हम नहीं जानते। इससे अधिक क्या कहें ? द्वैत प्रतिभासित ही नहीं होता। (स्वानुभूति के काल में मात्र मैं का ही आनन्द - वेदन होता है, वहाँ स्व-पर रूप कोई द्वैत होता ही नहीं)।' श्लोक १० :- 'शुद्ध नय आत्मा के स्वभाव को प्रगट करता हआ ('स्व' के भावन रूप = स्व का सहज परिणमन रूप = परम पारिणामिक भाव रूप प्रगट करता हुआ) उदय होता है। वह आत्म स्वभाव को कैसे प्रगट करता है ? (वह प्रगट किया हआ आत्म स्वभाव कैसा है?) पर द्रव्य, पर द्रव्य के भाव तथा पर द्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने विभाव – ऐसे पर भावों से भिन्न करता है। (अर्थात् पर द्रव्य तो प्रगट भिन्न है, इसलिये उनके साथ उनके लक्षण से भेद ज्ञान करता है और पर द्रव्य के निमित्त से होनेवाले अपने जो विभाव हैं, वे जीव रूप हैं, इसलिये उन विभावों को गौण करता है और विभावों में छिपी हई आत्म ज्योति को मुख्य करता है) और वह आत्म स्वभाव सम्पूर्ण रूप से पूर्ण है - सम्पूर्ण लोकालोक को जाननेवाला है ऐसा प्रगट करता है; (यहाँ समझना यह है कि परम पारिणामिक भाव रूप आत्मा का अर्थात् ज्ञान का लक्षण - ज्ञान का स्वभाव प्रतिबिम्ब रूप से पर को झलकाने का है, उस प्रतिबिम्ब को गौण करते ही
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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