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समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
शुद्धात्मा? नवीन उत्पन्न नहीं हुई, पहले कर्म से आच्छादित थी, वह प्रगट व्यक्ति रूप हो गयी (अर्थात् पहले जो अज्ञानी को उदय - क्षयोपशम रूप से अनुभव में आती थी, वही अब ज्ञानी को उदय-क्षयोपशम भाव गौण हो जाने पर या करते ही समयसार रूप = परम पारिणामिक भाव रूप = परम ज्योति रूप प्रगट होती है = ज्ञात होती है = अनुभव में आती है = व्यक्ति रूप होती है) और कैसी है वह? सर्वथा एकान्त रूप कुनय के पक्ष से खण्डित नहीं होती और निर्बाध है (अर्थात् जो सम्यग्दर्शन के लिये सर्वथा एकान्त नय की प्ररूपणा में रचते हैं, उन्हें शुद्धात्मा कभी प्राप्त ही नहीं होती, ऐसा ही यहाँ बतलाया है)।'
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कई सम्प्रदायों में ऐसी मान्यता है कि शुद्धोपयोग सातवें या तेरहवें गुणस्थानक में ही होता है, चौथे गुणस्थानक में नहीं होता; ऐसा मानकर वे अपने ही सम्यग्दर्शन का मार्ग बन्द कर रहे हैं। उनके लिये ऊपर बताया है कि अधिकतर लोग कीचड़ वाले जल को मलिन ही अनुभव करते हैं क्योंकि उनको जिनशासन की नयों की लक्ष्मी की समझ नहीं होने से या फिर कोई नय का आग्रह/पक्ष होने से ऐसा होता है। शुद्धनयाभासी लोगों को छोड़कर सर्व जनों को यह बात विदित है कि अज्ञानी जीव अभी अशुद्ध रूप से ही परिणम रहा है, फिर भी भगवान ने उस जीव में ही द्रव्य दृष्टि से अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से शुद्धात्मा देखने को और अनुभव करने को कहा है और उसी को सम्यग्दर्शन की विधि कही है। इसलिये चौथे गुणस्थानक में भी शुद्धोपयोग होता है, यह मानना आवश्यक है अन्यथा वह जिनमत बाह्य ही कहलायेगा क्योंकि अगर ऐसा होता तब कुन्दकुन्दाचार्य जैसे आचार्य भगवन्त बार-बार शुद्धात्मा का अनुभव करके ज्ञानी होने को नहीं कहते। यह बात हम भी अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं।
श्लोक ५ :- गाथा ११ और १२ को ही दृढ़ कराता है जो कि भेद रूप व्यवहार नय है वह अज्ञानी को मात्र समझाने के लिये है परन्तु वैसे भेद रूप आत्मा है नहीं इसलिये आश्रय तो अभेद रूप आत्मा का = शुद्धात्मा का, कि जिसमें पर द्रव्यों से होनेवाले भावों को गौण किया है, उसी का करना है। वह आत्मा ही उपादेय है अर्थात् द्रव्य-पर्याय रूप भेद अथवा पर्याय के निषेध रूप भेद का जो आश्रय करते हैं, उन्हें अभेद आत्मा का आभास भी नहीं आता। अर्थात् वे भेद में ही रमते हैं अर्थात् वे विकल्प में ही रमते हैं और भेद का ही आदर करते हैं क्योंकि उन्हें निषेध रहित दृष्टि का विषय ही मान्य नहीं होता, ऐसी है करुणाजनक परिस्थिति।
श्लोक ६ :- यहाँ आचार्य भगवान बतलाते हैं कि जो नौ तत्त्व की परिपाटी है उसे छोड़कर अर्थात् गौण करके देखने पर उस भाव को अनुभव में लाते ही आत्मा प्राप्त होती है।