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________________ समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 189 अनुभव कर सकनेवाले = आत्मा वर्तमान में उदय, क्षयोपशम रूप परिणमित होने पर भी उसमें छिपे हुये अर्थात् उदय और क्षयोपशम भाव को गौण करते ही जो भाव प्रगट होता है, वह अर्थात् उदय और क्षयोपशम भाव जिसका बना हुआ है वह अर्थात् एक सहज आत्म परिणमन रूप - परम पारिणामिक भाव रूप आत्मा को), अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक निर्मल भावपने के (परम पारिणामिक भाव के) कारण उसे (जल को = आत्मा को) निर्मल ही अनुभव करते हैं; उसी प्रकार प्रबल कर्म के मिलने से जिसका सहज एक ज्ञायक भाव (परम पारिणामिक भाव) तिरोभूत हो गया है, ऐसी आत्मा का अनुभव करनेवाले पुरुष (अज्ञानी)-आत्मा और कर्म का विवेक नहीं करनेवाले, व्यवहार से विमोहित हृदयवाले तो उसे (आत्मा को) जिसमें भावों का विश्वरूपपना (अनेकरूपपना) प्रगट है, ऐसा अनुभव करते हैं, परन्तु भूतार्थदर्शी (शुद्ध नय को देखनेवाले = ज्ञानी) अपनी बुद्धि से डाले हुए शुद्ध नय (प्रज्ञा छैनी) अनुसार बोध होने मात्र से उत्पन्न हुए आत्मा - कर्म के विवेकपने से (भेद ज्ञान से) अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक ज्ञायक भावपने के (परम पारिणामिक भाव के कारण उसे (आत्मा को) जिस में एक ज्ञायक भाव (परम पारिणामिक भाव) प्रकाशमान है, ऐसा अनुभव करते हैं.....' भावार्थ में पण्डितजी ने समझाया है कि जीव को जैसा है वैसा' सभी नयों से निर्णय करके सम्यक् एकान्त रूप शुद्ध जानना (मैपन करना), न कि एकान्त से अपरिणामी ऐसा शुद्ध जानना। उससे तो मिथ्यादर्शन का ही प्रसंग आता है क्योंकि जिनवाणी स्याद्वाद रूप है। प्रयोजनवश नय को मुख्य-गौण करके कहती है। जैसे कि मलिन पर्याय को गौण करते ही शुद्ध भाव रूप परम पारिणामिक भाव हाज़िर ही है, न कि पर्याय को भौतिक रीति से अलग करके। क्योंकि अभेद द्रव्य में भौतिक रीति से पर्याय को अलग करने की व्यवस्था ही नहीं है, इसलिये विभाव भाव को गौण करते ही (पर्याय रहित का द्रव्य) परम पारिणामिक भाव रूप अभेद-अखण्ड आत्मा का ग्रहण होता है, यही सम्यग्दर्शन की विधि है। गाथा १२ : गाथार्थ :- ‘परम भाव के (शुद्धात्मा के) देखनेवालों को (अनुभव करनेवालों को) तो शुद्ध (आत्मा) का उपदेश करनेवाला शुद्ध नय जानने योग्य है (अर्थात् शुद्ध नय के विषय रूप शुद्धात्मा का ही आश्रय करने योग्य है क्योंकि उसके आश्रय से ही श्रेणी चढ़कर वे सम्यग्दृष्टि जीव घाति कर्म का नाश करते हैं और केवली होते हैं), और जो जीव अपरम भाव में स्थित हैं (अर्थात् मिथ्यात्वी हैं), वे व्यवहार द्वारा (अर्थात् भेद रूप व्यवहार द्वारा वस्तु स्वरूप समझाकर तत्त्वों का निर्णय कराने के लिये) उपदेश करने योग्य है।'
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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