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समयसार के अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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ही किये जाते हैं, न कि वास्तविक इसलिये जिन के ऐसे प्रश्न होते हैं कि सम्यग्दर्शन के विषय में प्रमाण का द्रव्य क्यों लिया है या सम्यग्दर्शन के विषय में पर्याय का निषेध क्यों नहीं किया है या जो लोग द्रव्य के ध्रुव को और पर्याय के ध्रुव को अलग मानते हों इत्यादि, उनको अपना द्रव्य-गुण-पर्याय का ज्ञान जाँचने की आवश्यकता है और द्रव्य की अभेदता समझने की आवश्यकता है क्योंकि ये दोनों व्यवस्थाएँ समझ जाने के बाद ये सब समस्याएँ नहीं रहेंगी, अन्यथा आप मिथ्या रूप भ्रम में ही रहेंगे, यह बात इस गाथा में समझायी है। निषेध निश्चय नय का पक्ष है और अनुभव पक्षातीत होता है, इसलिये किसी भी नय के पक्षवाले को अनुभव नहीं होता, बल्कि वह एकान्त रूप परिणमता है।
गाथा ७ : टीका :- ...क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मी में (अर्थात् भेद से समझकर अभेद रूप अनुभूति में) जो निष्णात नहीं है ऐसे निकटवर्ती शिष्यजन को, धर्मी को बतलानेवाले कितने ही धर्मों द्वारा (अर्थात् भेदों द्वारा), उपदेश करते हुए आचार्य का-यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है तो भी नाम से भेद उत्पन्न करके (अभेद द्रव्य में द्रव्य-गुण-पर्याय ऐसे भेद उत्पन्न करके) व्यवहार मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी को दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है परन्तु परमार्थ से (अर्थात् वास्तव में) देखने में आवे तो अनन्त पर्यायों को एक द्रव्य पी गया होने से जो एक है... (अर्थात् जो द्रव्य तीनों काल में उन-उन पर्याय रूप परिणमता होने पर भी अपना द्रव्यपना नहीं छोड़ा है - जैसे कि मिट्टी घट पिण्ड रूप से परिणमने पर भी मिट्टीपन नहीं छोडती और प्रत्येक पर्याय में वह मिट्टीपन व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से है इसलिये पर्याय अनन्त होने पर भी वह द्रव्य तो एक ही है)। ....एक शुद्ध ज्ञायक ही है।'
____ गाथा ८ : गाथार्थ :- 'जैसे अनार्य (म्लेच्छ) जन को अनार्य भाषा के बिना कुछ भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है, वैसे व्यवहार बिना परमार्थ का उपदेश करने में कोई समर्थ नहीं है। (अर्थात् मिथ्यात्वी को भेद रूप व्यवहार भाषा के बिना वस्तु का स्वरूप समझाने में कोई समर्थ नहीं है, इसलिये अभेद तत्त्व में अलग-अलग प्रकार से भेद रूप व्यवहार किया जाता है, जैसे कि द्रव्य-गुण-पर्याय, ज्ञान-दर्शन-चारित्र, उत्पाद-व्यय-ध्रुव, सैंतालीस शक्तियाँ इत्यादि, यह मात्र समझाने के लिए है; न कि अनुभव के लिये। अनुभव तो यथार्थ ऐसे अभेद आत्मा का ही होता है अर्थात् परमार्थिक आत्मा में कुछ भी भेद न समझना और जब तक भेद में होगा तब तक अभेद का अनुभव होगा ही नहीं क्योंकि भेद तो व्यवहार रूप उपचार मात्र अज्ञानी को स्वरूप ग्रहण कराने के लिए किये हैं, वास्तव में हैं नहीं।)'