SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 170 सम्यग्दर्शन की विधि की लब्धि है, इसलिये स्व समयों (स्वधर्मियों) और पर समयों (परधर्मियों) के साथ वचन विवाद वर्जन योग्य है।' ____ तत्त्व के लिये कुछ भी वाद-विवाद, वैर-विरोध, झगड़ा कभी भी करने योग्य नहीं है क्योंकि उससे तत्त्व की ही पराजय होती है। धर्म ही लजाता है। दोनों पक्षों को कुछ भी धर्म प्राप्त नहीं होता, इसलिये उसमें वाद-विवाद, वैर-विरोध, झगड़ा त्यागने योग्य ही है। श्लोक २७१ :- 'हेय रूप ऐसा जो कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह, उसे छोड़ कर (अर्थात् मुमुक्षु जीव को आत्म प्राप्ति के लिये यह मोह छोड़ने योग्य है), हे चित्त (अर्थात् चेतन) ! निर्मल सुख के लिये (अर्थात् अतीन्द्रिय सुख के लिये) परम गुरु द्वारा धर्म को प्राप्त करके तू अव्यग्र रूप (शान्त स्वरूपी) परमात्मा में (अर्थात् निर्विकल्प परम पारिणामिक भाव रूप त्रिकाली शुद्ध आत्मा में) जो (परमात्मा - शुद्धात्मा) नित्य आनन्दवाला है, निरुपम गुणों से अलंकृत है और दिव्य ज्ञानवाला (अर्थात् शुद्ध सामान्य ज्ञानवाला शुद्धात्मा) है - शीघ्र प्रवेश कर।' अर्थात् सभी मुमुक्षु जीवों को कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह छोड़ कर शुद्धात्मा में ही शीघ्र 'मैंपन' कर के उसी की ही अनुभूति में एक रूप हो जाने की प्रेरणा की है अर्थात् सभी मुमुक्षु जीवों को वही करने योग्य है। गाथा १५९ टीका का श्लोक :- ‘वस्तु का यथार्थ निर्णय वह सम्यग्ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान, दीपक की भाँति स्व और (पर) पदार्थों के निर्णयात्मक है (अर्थात् यह सम्यग्ज्ञान वही विवेकयुक्त ज्ञान है कि जो शुद्धात्मा में “मैंपन' करने पर भी, आत्मा को वर्तमान राग-द्वेष रूप अशुद्धि से मुक्त कराने के लिये, विवेकयुक्त मार्ग अंगीकार कराता है) तथा प्रमिति से (ज्ञप्ति से) कथंचित् भिन्न (अर्थात् जो जानना होता है, वह विशेष अर्थात् ज्ञानाकार है जो कि ज्ञान का ही बना हुआ होने पर भी, उस ज्ञानाकार को दृष्टि का विषय प्राप्त करने में गौण करने में आया होने से और वह ज्ञानाकार तथा ज्ञान कथंचित् अभेद होने से अर्थात् एकान्त से भेद नहीं होने से उन्हें कथंचित् भिन्न कहा) है।' गाथा १६४ : अन्वयार्थ :- ‘व्यवहार नय से ज्ञान पर प्रकाशक है; इसलिये दर्शन पर प्रकाशक है; व्यवहार नय से आत्मा पर प्रकाशक है इसलिये दर्शन पर प्रकाशक है।' जोज्ञान है अथवा दर्शन है, वही आत्मा है और पर प्रकाशन में (ज्ञेयाकार रूप ज्ञान के परिणमन में) सामान्य ज्ञान और ज्ञेयाकार अर्थात् ज्ञानाकार ऐसा भेद होने से, स्व से कथंचित् भिन्न कहलाता है। यानि स्व, अभेद और निर्विकल्पस्व रूप है, जबकि पर प्रकाशन में ज्ञेयाकार रूप जो ज्ञान का परिणमन होता है वह विकल्प रूप है और इसलिये वह भेद रूप होने से उसे व्यवहार रूप कहा है,
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy