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ध्यान के विषय में
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ध्यान के विषय में अब हम थोड़ा सा ध्यान के विषय में समझकर आगे बढ़ेंगे। कोई भी वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति आदि पर मन का एकाग्रतापूर्वक चिन्तवन ध्यान कहलाता है। हमने अभी तक देखा कि मन का सम्यग्दर्शन में बहुत ही महत्त्व है, जैसे कि समाधितन्त्र श्लोक ३५ में बतलाया है कि 'जिसका मन रूपी जल राग-द्वेषादि तरंगों से चंचल नहीं होता, वह आत्मा के यथार्थ स्वरूप को देखता है - अनुभव करता है, उस आत्म तत्त्व को दूसरा मनुष्य - रागद्वेषादि से आकुलित चित्तवाला (मनवाला) मनुष्य देख नहीं सकता।' अर्थात् सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय), वह भी मन से ही चिन्तवन होता है और अतीन्द्रिय स्वानुभूति के काल में भी वह भाव मन ही अतीन्द्रिय ज्ञान रूप परिणमता है।
इसीलिये मन किस विषय पर चिन्तवन करता है अथवा मन किन विषयों में एकाग्रता करता है, उस पर ही बन्ध और मोक्ष का आधार है। जैसा कि परमात्मप्रकाश छन्द २७१ में बतलाया है कि ‘पाँच इन्द्रियों के स्वामी मन को तुम वश में करो, उस मन के वश होने से वे पाँच इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। जैसे कि वृक्ष के मूल का नाश होने पर पत्र नियम से सूख जाते हैं।' अर्थात् मन ही बन्ध का कारण है और मन ही मुक्ति का कारण है।
यह बात किसी ने एकान्त से नहीं समझना, यह बात अपेक्षा से कहने में आयी है, क्योंकि जो मन है, वही सम्यग्दर्शन का निमित्त कारण है और बन्ध का भी निमित्त कारण है, इस अपेक्षा से विवेकपूर्वक यह बात कहने में आयी है। जैसा कि परमात्मप्रकाश मोक्षाधिकार छन्द १५७ में बतलाया है कि जिन्होंने मन को शीघ्र ही वश में करके अपनी आत्मा को परमात्मा में नहीं मिलाया (अर्थात् स्वात्मानुभूति नहीं की), हे शिष्य! जिनकी ऐसी शक्ति नहीं, वह योग से क्या कर सकेगा? (अर्थात् ऐसे जीव अध्यात्मयोग से स्वात्मानुभूतिरूप लाभ नहीं ले सकते)' इस प्रकार मोक्षमार्ग में मन का अत्यन्त ही महत्त्व होने से बहुत ग्रन्थों में ध्यान के विषय में बहुत अधिक बतलाया गया है, परन्तु यहाँ उसका मात्र थोड़ा सा उल्लेख करके हम आगे बढ़ेंगे।
ध्यान शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप तीन प्रकार से होता है, उसके चार प्रकार हैं - आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान ; इन चार प्रकारों के भी अन्तर प्रकार हैं। मिथ्यात्वी जीवों को आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान नामक दो अशुभ ध्यान सहज ही होते हैं क्योंकि वैसे ही