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________________ 132 सम्यग्दर्शन की विधि * सच्चा सुख उसे कहते हैं जो स्वाधीन हो, शाश्वत् हो, कभी भी उससे ऊबना न हो, दुःख मिश्रित न हो, दुःखपूर्वक न हो और दुःखजनक भी न हो। आत्मा ऐसी ही सुखमय है, अन्य जो भी सुख लगते या दिखते हैं, वे सभी सुखाभास मात्र हैं। क्योंकि वे क्षणिक हैं, पराधीन हैं, दुःखपूर्वक हैं और दुःखजनक भी हैं। * धर्म २४x७ का होता है अर्थात् चौबीस घण्टे और हफ़्ते के सातों दिन चले ऐसा धर्म होता है। चार भावना, बारह भावना, अन्य योग्यता के बोल और “धन्यवाद! स्वागतम् ! (Thank you! Welcome!)' का भाव २४x७ सँजोना है। क्योंकि हमारा कर्म बन्ध २४ x ७ चलता रहता है, इसलिए हमें उससे बचने के लिये धर्म भी २४ x ७ चले ऐसा चाहिये। यह नहीं कि एक बार प्रक्षाल, पूजा, प्रवचन, सामायिक, क्रम, स्वाध्याय, ध्यान या प्रतिक्रमण इत्यादि कर लेने से हमारा काम पूरा हो गया। * इसके लिये हर घण्टे को या दो घण्टे को हमारे मन के परिणाम जाँचते रहना है। परिणाम को उन्नत करते रहना और लगे हुए पापों का प्रायश्चित्त, निन्दा, गर्दा आदि करना है; फिर से ऐसे परिणाम न हों, उसका ख़याल रखना है। * जब भी समय मिले नमस्कार मन्त्र का स्मरण करते रहना और हमें भी भगवान बनना है, इस बात का स्मरण रखना। * निरन्तर सत्संग की इच्छा करना, अन्तर्मुखी रहना और ख़ुद के दोष देखते रहना, उसे मिटाने का पुरुषार्थ करते रहना इत्यादि एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्यपूर्वक करना आवश्यक है। विद्वज्जनों के लिये भी मोह को जीतना महादुष्कर होता है क्योंकि कोरी विद्वत्ता मोह को परास्त करने के लिये कार्यकारी नहीं होती। * मोह को पराभूत करने के लिये जितना वैराग्य और पीछे कही हुई अन्य योग्यतायें आवश्यक है, उतनी विद्वत्ता की आवश्यकता नहीं है, उल्टा कभी-कभी विद्वत्ता कषाय (क्रोधमान-माया-लोभ) को जन्म या बढ़ावा देनेवाली बन जाती है; इसलिये सदैव सावधान रहना आवश्यक है।
SR No.034446
Book TitleSamyag Darshan Ki Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailendra Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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