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सम्यग्दर्शन की विधि
* सर्व संयोग अनित्य हैं, कोई भी संयोग नित्य अपने साथ रहनेवाले नहीं हैं। इसलिये संयोगों ____ में मेरापना और मैंपन त्यागना अति आवश्यक है। * वैराग्य यानि मेरे मन में बसे संसार का नाश करना अर्थात् बाहर का संसार हम को उतना
बाधाकारक नहीं होता जितना बाधाकारक हम को अपने मन का संसार होता है। इसलिये पहले हमको अपने मन के संसार का नाश बारह भावना-अनुप्रेक्षा से करना है, बाद में
बाहर का संसार का नाश क्रमश: अवश्य होगा। * मन में बसे संसार का कारण दर्शन मोहनीय कर्म है और बाहर के संसार का कारण चारित्र
मोहनीय कर्म है। प्रथम दर्शन मोहनीय कर्म जाता है, तब सम्यग्दर्शन (चौथा गणस्थानक) प्राप्त होता है, और बाद में जब चारित्र मोहनीय कर्म क्रमश: जाता है, तब पाँचवाँ आदि
गुणस्थानक प्राप्त होता है अर्थात् बाहर के संसार का नाश क्रमश: होता है। * संसार के सभी सम्बन्ध स्वार्थ पर आधारित होने से और क्षणिक भी होने से, उन में आसक्ति
करने जैसी नहीं है। परन्तु अपना जो भी कर्तव्य है, वह पूरी निष्ठा से निभाना है, उसमें
कोई भी कमी नहीं रखनी है। * शरीर अशुद्धि से भरा हुआ है, उसे कितनी ही बार स्नान कराने पर भी वह तुरन्त ही अशुद्ध
हो जाता है। शरीर में करोड़ों रोग भी भरे हुए हैं, वे कब उदय में आ जायेंगे, पता नहीं। धुले हुए कपड़े को एक बार भी शरीर पर धारण करने से, कपड़े अशुद्धि-युक्त हो जाते हैं। ऐसे शरीर का मोह करने जैसा नहीं है। * संसार आधि-व्याधि-उपाधि से भरा हुआ है। संसार में कहीं भी सुख नहीं होने पर भी जो
सुख प्रतीत होता है, वह सुखाभास मात्र है और वह क्षणिक भी है; मगर वह सच्चा सुख नहीं है। जब तक मोह मन्द नहीं होता, तब तक यह बात समझ में नहीं आती, इसलिये जिसको संसार में सुख भासता हो, उसे पीछे कहे गये उपायों से मोह मन्द करना भी आवश्यक है। * मनुष्य भव अति दुर्लभ है, उसमें भी पूर्ण इन्द्रियाँ, लम्बी आयु, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल,
सत्य धर्म, श्रद्धा आदि एक-एक से अति दुर्लभ हैं। इसे पाने के बाद अगर हम उसका सही उपयोग नहीं कर पायें, तब हमें अन्ततोगत्वा एकेन्द्रिय में जाने से कोई बचा नहीं पायेगा। फिर एकेन्द्रिय गति से निकलना चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति से भी अधिक दर्लभ
बताया गया है। * Daily Progress यानि दैनिक प्रगति : अगर हम हर दिन आन्तरिक आध्यात्मिक प्रगति