________________
सम्यग्दर्शन के लिये योग्यता
है। मगर हमें यह समझना है कि निन्दा - प्रशंसा, सुख-दुःख, रति-अरति, अमीरी-ग़रीबी इत्यादि सभी संयोग कर्मों के अधीन होते हैं; अपने चाहने से या नहीं चाहने से उनमें कोई फ़र्क़ पड़नेवाला नहीं, परन्तु हम आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान के भागी अवश्य होंगे।
127
* अनादि से हमें सत्य धर्म की प्राप्ति अति दुर्लभ बनी हुई है और जब भी कभी हमें सत्य धर्म की प्राप्ति हुई, तब भी हम उसे पहचान नहीं पाये और अगर पहचाना भी तो हम उस पर श्रद्धा नहीं कर पाये।
* अनादि से हम सत्य धर्म के नाम से कोई न कोई सम्प्रदाय, पक्ष, आग्रह या किसी व्यक्ति के प्रति राग में फँसकर रह गये, उसे ही सत्य धर्म मानकर अपना अनन्त काल गँवाया है और अनन्त दुःख सहे हैं।
* सत्य धर्म पाने के लिये "सच्चा वही मेरा और अच्छा वही मेरा" यह भाव रखना आवश्यक है।
* सत्य धर्म पाने के लिये जीव सत्य का स्वीकार करने को तत्पर होना चाहिये (ready to accept) और उसके अनुसार जीव अपने आप को बदलने के लिये भी तत्पर होना चाहिये (ready to change), अन्यथा वह सत्य धर्म नहीं पा सकता।
* सत्य धर्म ज्ञानी के अन्तर में बसता है, वह बाहर ढूँढ़ने से मिलनेवाला नहीं। सत्य धर्म ज्ञानी के सानिध्य में मिलेगा क्योंकि ज्ञानी ही जीव को आत्मा की पहचान आसानी से करा सकते हैं। इसलिये सत्य धर्म को कोई बाहर के क्रियाकाण्ड अथवा व्रत आदि में न मानकर उसे आगे कहे अनुसार ख़ुद के अन्तर में खोजना है अर्थात् ख़ुद के अन्तर में प्रगट करना है।
* जो मोक्षमार्ग जानता है, वही उसे बता सकता है। क्योंकि मोक्षमार्ग संसार में डूबे हुए जीवों के लिये अति गहन और अगम्य है, परन्तु सत्पुरुष (ज्ञानी) के माध्यम से सुलभ है। * सत्य धर्म की योग्यता प्रकट करने के लिये नीति-न्यायपूर्वक अर्थार्जन, प्राप्ति में सन्तोष, कम से कम समय अर्थार्जन के लिये देना, अधिक से अधिक समय स्वाध्याय-मननचिन्तन आदि में लगाना, सात्विक भोजन, कन्द मूल - अनन्त काय का त्याग, जीव दया का पालन, रात्रि भोजन का त्याग, अभक्ष्य का त्याग, शरीर को कम से कम सँवारना, सादगीयुक्त जीवन, सुखशीलता का त्याग, अति क्रोध- - मान-माया-लोभ का त्याग, पुराने पापों का पश्चात्ताप, बारह भावना का चिन्तन, जीवों के प्रति चार भावना, पंच परमेष्ठी