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________________ दुन्दुभि, (11) छत्र धरावें, (12) ●वर बिजावें, पुरुषाकार पराक्रम के धरणहार, ऐसे अढ़ाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र में विचरते हैं। जघन्य दो क्रोड़ केवली उत्कृष्ट नव क्रोड़ केवली, केवल ज्ञान, केवल दर्शन के धरणहार, सर्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के जाननहारसवैया- नम श्री अरिहंत, कर्मों का किया अन्त । हुआ सो केवल वन्त, करुणा भण्डारी है।।1।। अतिशय चौंतीसधार, पैंतीसवाणी उच्चार । समझावे नर-नार, पर उपकारी है ।। 2 ।। शरीर सुन्दरकार, सूरज सो झलकार । गुण है अनन्त सार, दोष परिहारी है।।3।। कहत है तिलोक रिख, मन वच काया करी। लुली-लुली बारम्बार, वन्दना हमारी है ।।4।। ऐसे श्री अरिहन्त भगवान, दीनदयालजी महाराज, आपकी दिवस सम्बन्धी अविनय आशातना की हो तो हे अरिहन्त भगवान ! मेरा अपराध बारम्बार क्षमा करिये, मैं हाथ जोड़, मान मोड़, शीश नमाकर तिक्खुत्तो के पाठ से 1008 बार वन्दना नमस्कार करता हूँ। तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, नमसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि, मत्थएण वंदामि। आप मांगलिक हो, आप उत्तम हो, हे स्वामिन् ! हे नाथ! आपका इस भव, पर भव, भव भव में सदाकाल शरण होवे। 1. प्रात:काल में रात्रि संबंधी, पक्खी के दिन पक्खी सम्बन्धी, चौमासी के दिन चौमासी संबंधी और संवत्सरी के दिन संवत्सरी संबंधी बोलें। {32} श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र
SR No.034373
Book TitleShravak Samayik Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParshwa Mehta
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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