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सकते हैं। जैसे-राग-द्वेषादि अठारह पाप-ये चतुस्पर्शी में लिये हैं। गहराई से विचार करने पर ज्ञात होता है कि रागादि पाप जब तक आत्मिक स्तर पर रहते हैं, तो वे अरूपी होते हैं। जब वे ही पाप मानसिक स्तर पर आ जाते हैं तो चतुस्पर्शी तथा वाचिक
और कायिक स्तर पर आ जाते हैं तो अष्टस्पर्शी हो जाते हैं। राग-द्वेष भाव कर्म होने से अरूपी माने गये हैं। अठारह पाप के रूप में चतुस्पर्शी तथा चेहरे आदि पर झलकने से अष्टस्पर्शी हो जाते हैं। इसी प्रकार मिथ्यात्व को मिथ्यादृष्टि के रूप में अरूपी माना है, जबकि मिथ्यादर्शन शल्य रूप पाप को चतुस्पर्शी माना है तथा मिथ्यात्व की प्रवृत्ति जब वाचिक और कायिक स्तर पर
आ जाती है तो वह अष्टस्पर्शी हो जाता है। 5. अरूपी द्रव्यों तथा चतुस्पर्शी पुद्गलों में एक अगुरुलघु भंग पाया जाता है।
कठिन शब्दों के अर्थ घनोदधि-जमा हुआ कठोर पानी (जमें हुए घी के समान) जो कभी पिघले नहीं।
घनवाय-जमी हुई कठोर वायु (पिघले हुए घी के समान)। तनुवाय-पतली (हल्की) वायु (तपाये हुए घी के समान)।
सूक्ष्म पुद्गलास्तिकाय का स्कंध-दो प्रदेशी से लेकर अनन्त प्रदेशी तक के सभी चतुस्पर्शी स्कंध जो दृष्टिगोचर नहीं होते,