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________________ देवलोक की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की होती है, किंतु धर्मदेव पृथक्त्व पल्योपम से कम आयु पाते ही नहीं हैं। वहाँ देवलोक की आयु पूर्ण कर मनुष्य भव में आकर 9 वर्ष की आयु में पुन: धर्मदेव बन सकते हैं। अत: जघन्य अन्तर पृथक्त्व पल्योपम होता है। देशोन अर्ध पुद्गल परावर्तन में वह धर्मदेव अवश्य ही मोक्ष में चला जाता है, इसलिए उत्कृष्ट अन्तर इतना ही हो पाता है। भावदेव का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का जो बतलाया, वह सन्नी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय पर्याप्तक की अपेक्षा से समझना। क्योंकि सन्नी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में देवगति से आया हुआ अन्तर्मुहूर्त में ही पर्याप्त बनकर पुन: देवगति (भाव देव) में जाकर उत्पन्न हो सकता है। उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल का वनस्पति में चले जाने की अपेक्षा से है, क्योंकि सूक्ष्म-साधारण तथा प्रत्येक वनस्पति में चले जाने पर वहाँ अनन्त काल तक भी रह सकता है। उसके बाद वनस्पतिकाय से निकलकर मनुष्य अथवा तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय बनकर भावदेव बन सकता है, अत: उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल का हो जाता है। देवाधिदेव उसी भव में नियमा मोक्ष में चले जाते हैं, अत: उनका अन्तर होता ही नहीं है।
SR No.034370
Book TitleRatnastok Mnjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2016
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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