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________________ कर्म-सिद्धांत और पुण्य-पाप --- ----- 47 प्रकृतियों का अनुभाग घात वहाँ नहीं होता है, यह सिद्ध होने पर स्थिति व अनुभाग से रहित आयोगी केवली गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग यथावत् बना रहता है। यह अर्थापत्ति से सिद्ध होता है। अभिप्राय यह है कि पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग क्षायिक चारित्र, वीतरागता, केवलज्ञान, केवलदर्शन की उत्पत्ति में बाधक नहीं है, अपितु आवश्यक है। -धवला पुस्तक 12 पृष्ठ 14 यह नियम है कि जब तक पुण्य कर्म प्रकृतियों का विस्थानिक अनुभाग बढ़कर चतु:स्थानिक नहीं होता है तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है और यह चतु:स्थानिक अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट नहीं होता है तब तक केवलज्ञान नहीं होता है। इसके विपरीत पापकर्म की प्रकृतियों का चतु:स्थानिक अनुभाग घटकर विस्थानिक नहीं होता है तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है और घाती पाप प्रकृतियों का पूर्ण क्षय नहीं होता है तब तक केवलज्ञान नहीं होता है। इससे स्पष्ट होता है कि सम्यग्दर्शन और केवलज्ञान में पाप ही बाधक है, पुण्य बाधक नहीं है, पुण्य और पाप प्रकृतियों के अनुभाग (रस) के विषय में कहा गुडखंडसक्करामियसरिसा सत्था हु णिंबकजीरा। विसहलाहल सरिसाऽसत्था हु अघादिपडिभागा।। अघाती कर्मों में प्रशस्त प्रकृतियों का रस गुड़, खाण्ड, मिश्री और अमृत के समान होता है और अप्रशस्त प्रकृतियों का रस नीम, कांजीरा, विष, हलाहल के समान होता है। यह कथन इन प्रकृतियों के एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक एवं चतु:स्थानिक स्पर्द्धकों की तरतमता का सूचक है अर्थात् पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर चतु:स्थानिक व उत्कृष्ट हो जाता है। वह अमरत्व (देवत्व, अविनाशीपन) का सूचक होता -
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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