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________________ 46 --- पुण्य-पाप तत्त्व अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती के, मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन इन 6 प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते हुए अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय में सम्यग्दृष्टि रहने वाले जीव के ही होता है। शेष 32 पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध चारित्र की क्षपक श्रेणी करने वाले साधक के केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न होने के अंतर्मुहूर्त पूर्व ही होता है। यथा विउव्विसुराहारदुगं सुखगइ वन्नचउ तेयजिणसायं। समचउपरघातसदस पणिंदिसासुच्च खवगाउ।। -पंचम कर्मग्रन्थ 67 अर्थ-वैक्रियद्विक, देवद्विक, आहारक द्विक, शुभ विहायोगति, वर्णचतुष्क, तेजसचतुष्क, तीर्थङ्कर नामकर्म, सातावेदनीय, समचतुरस्र संस्थान, पराघात, त्रस दशक, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास नाम और उच्च गोत्र का उत्कृष्ट अनुभागबंध क्षपक श्रेणी करने वाले ही करते हैं। इन 32 पुण्य प्रकृतियों का यह उत्कृष्ट अनुभाग बंध उसी भव में मुक्ति प्राप्त करने वाले जीव ही करते हैं। उनका यह अनुभागबंध मुक्तिप्राप्ति के अंतिम क्षण तक (दो समय पूर्व तक) उत्कृष्ट ही रहता है, जैसाकि कहा है सुहाणं पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्घाएण जोगनिरोहेण वा अनुभागघाओ नत्थि ति जाणवेइ। खीणकसायसंजोगीसुट्ठिदि अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुकस्साणुभागो होदि नत्थि अत्थावतिसिद्धं । ___अर्थात् शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योग-निरोध से नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी केवली गुणस्थान में स्थिति घात व अनुभाग घात के होने पर भी शुभ
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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