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________________ सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का परिणाम ---- -------225 जन व्यवहारी नाम से, सधे न कोई काम।। कुदरत का कानून है, कृपा करे ना क्रोध। विकृत मन होवे दु:खी, होय सुखी चित्त शोध।। राग-द्वेष की मोह की, जब तक मन में खान। तब तक सुख का, शांति का, जरा न नाम निशान।। शील रतन मोटो रतन, सब रतनों की खान। तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।। कर्म सिद्धांत व आगमों में दु:ख को दोष, पाप व दुष्प्रवृत्ति का फल बताया है। समस्त दोषों की उत्पत्ति विषयों के सुख की कामना से होती है, विषय सुख की कामना उत्पन्न होते ही सहज स्वभाव से सदा विद्यमान समता व शांति भंग हो जाती है और चित्त अशांत, कुपित, क्षुब्ध व खिन्न हो जाता है। इसे ही क्रोध कहा गया है यथा- “कामात् क्रोधोऽभिजायते' अर्थात् कामना से क्रोध-क्षोभ पैदा होता है। कामना-पूर्ति होने पर, जिस व्यक्ति, वस्तु से कामना पूरी होती है, वह उसे स्थायी, सुखद, सुंदर प्रतीत होती है। इससे उस भोग्य पदार्थ के प्रति ममत्व-मेरापन का भाव हो जाता है। जो वस्तु सड़न, गलन स्वभाव वाली है, उसे सुंदर मानना, जिसका वियोग अवश्यम्भावी है, उसे स्थायी मानना, जो मेरे से भिन्न है उसे मेरी मानना भ्राँति है, धोखा है, माया है। कामना पूर्ति जनित सुख को बारबार भोगने के लिए प्राप्त वस्तु आदि से तादात्म्य, ऐक्य, अहंभाव बुद्धि हो जाना, उसे 'मैं' मानना 'मान' कहा गया है। उस भोग्य पदार्थ को सदा बनाये रखने तथा उसी जाति के अन्य भोग भोगने व पदार्थों को पाने की तृष्णा होने को लोभ कहा गया है। विषय सुख की इन चारों स्थितियों में 'पर' के प्रति, संसार के प्रति आकर्षण रहता है, अत: इन्हें कषाय कहा गया है। विषय-सुख की कामना न हो तो राग, द्वेष, मोह आदि दोषों की उत्पत्ति ही नहीं होती है।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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