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________________ 224 पुण्य-पाप तत्त्व भावार्थ-असत्य (पर- विनाशी) पदार्थ का भोग करने वाला भोग के पहले, पीछे एवं प्रयोग (उपभोग) करते समय दु:खी होता है और उसका अंत भी बुरा होता है। इस प्रकार भावों से पर पदार्थों को ग्रहण करते हुए वह जीव दु:खी व आश्रयहीन हो जाता है। दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई । । -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 32, गाथा 8 भावार्थ- दु:ख उसी का नष्ट होता है जिसके मोह नहीं है। मोह उसी का नष्ट होता है जिसके तृष्णा नहीं है। तृष्णा उसी के नहीं होती है, जिसके लोभ नहीं है। लोभ उसी के नहीं होता है जो अकिंचन होता है। अर्थात् जो परिग्रह रहित होता है, जो अपने को कुछ नहीं मानता, किसी को अपना नहीं मानता, किसी से कुछ भी कामना नहीं रखता, वह ही दु:ख रहित होता है। कहा है गोधन, गजधन, रत्नधन, कंचन खान सुखान । जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान ।। कुदरत का कानून है, सब पर लागू होय । विकृत मन व्याकुल रहे, निर्मल सुखिया होय ।। द्वेष और दुर्भाव के, जब जब उठे विकार । मैं भी दु:खिया हो उर्दू, दु:खी करूँ संसार ।। शुद्ध धर्म धारण करें, करें दूर अभिमान । मिले अमित संतोष सुख, धर्म सुखों की खान ।। द्वेष और दुर्भाव से, आकुल-व्याकुल होय । स्नेह और सद्भाव से, हर्षित पुलकित होय ।। निर्धन या धनवान हो, अनपढ़ या विद्वान् । जिसने मन मैला किया, उसके व्याकुल प्राण ।। दुर्गुण से ही दु:ख मिले, सद्गुण में सुखधाम ।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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