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________________ 154 ---- --- पुण्य-पाप तत्त्व उपार्जन न तो मन, वचन व काया के किसी योग से होता है और न किसी कषाय से होता है, प्रत्युत आत्म-विशुद्धि व शुद्धापेयोग से होता है, क्योंकि योग से तो कर्म की प्रकृति व प्रदेश का उपार्जन होता है, स्थिति व अनुभाग का नहीं। यदि पुण्य के अनुभाग का उपार्जन कषाय से होता है तो पुण्य का अनुभाग कषाय के बढ़ने से बढ़ता तथा कषाय के घटने से घटता, जैसा कि पाप प्रकृतियों में होता है परंतु ऐसा नहीं होता है। इसके विपरीत पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग कषाय बढ़ने से घटता है, कषाय घटने से बढ़ता है और जैसे-जैसे कषाय का क्षय होता जाता है, वैसे-वैसे बढ़ता जाता है। संयम, त्याग, तप रूप क्षपक श्रेणी की उत्कृष्ट साधना के समय कषाय के पूर्ण क्षय रूप पूर्ण शुद्धोपयोग होने पर साधक के पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् ही केवलज्ञान व केवलदर्शन होते हैं। सारांश यह है कि केवलज्ञान, केवलदर्शन व मुक्ति में बाधक पुण्य की उपलब्धि नहीं है, बल्कि पुण्य के अनुभाग में कमी रह जाना है तथा घाती कर्म की पाप प्रकृतियों का उदय है। अत: मुक्ति-प्राप्ति के लिए पाप के त्याग व क्षय की आवश्यकता है। साधना का लक्ष्य या कार्य मात्र पाप का क्षय करना है, पुण्य का नहीं। क्योंकि किसी भी साधना से पुण्य के अनुभाग का क्षय नहीं होता है। यहाँ तक कि केवली समुद्घात से भी पुण्य का अनुभाग क्षीण नहीं होता है और मुक्ति-प्राप्ति के अंतिम समय तक पुण्य का यह अनुभाग उत्कृष्ट ही रहता है। पुण्य के अनुभाग के क्षय का एकमात्र उपाय है संक्लेशभाव, जिसका वीतराग अवस्था में सर्वथा अभाव है। रहा पुण्य की स्थिति का क्षय, जो पाप प्रकृतियों की स्थिति के क्षय के साथ स्वत: ही हो जाता है, इसके लिए अलग से साधना की आवश्यकता नहीं होती।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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