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________________ मुक्ति में पुण्य सहायक, पाप बाधक --- ---------- 153 से, पूर्ण शुद्धोपयोग से, पूर्ण पवित्रता से, उत्कृष्ट पुण्य से। उत्कृष्ट पुण्य होता है संयम, संवर, त्याग, तप रूप शुद्धोपयोग की पूर्णता से तथा पाप के क्षय से। पुण्य के अनुभाग की वृद्धि व पूर्णता पाप की कमी व क्षय की द्योतक है। पाप से आत्मा का पतन होता है, अत: पाप ही मुक्ति में बाधक है और पाप के क्षय से ही मुक्ति की उपलब्धि होती है। पुण्य भाव से आत्मा पवित्र होती है आत्मा का उत्थान होता है। आत्मा की पवित्रता मुक्ति में सहायक होती है, बाधक नहीं। पुण्य कर्म की बयालीस प्रकृतियाँ हैं। इनमें से सातावेदनीय, उच्च गोत्र आदि बत्तीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग चारित्र की क्षपक श्रेणी की उत्कृष्ट साधना में हाता है। इनका उत्कृष्ट अनुभाग होने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान हो जाता है। इन प्रकृतियों के अनुभाग के अनुत्कृष्ट रहते आज तक न किसी को केवलज्ञान हुआ है और न आगे ही होगा और केवलज्ञान के बिना किसी को मुक्ति नहीं हो सकती। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि आज तक जिस किसी को मुक्ति नहीं मिली उसका कारण पुण्य की उत्कृष्टता में कमी रहना है, न कि पुण्य की उपलब्धि। दूसरे शब्दों में कहें तो पुण्य की उत्कृष्ट अवस्था में बाधक कारण पाप है। अत: पाप ही मुक्ति में बाधक है, पुण्य नहीं। केवलज्ञान और केवलदर्शन न होने का कारण कोई पुण्य प्रकृति नहीं, अपितु केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण आदि पाप प्रकृतियों का उदय है। इसी प्रकार क्षायिक चारित्र या क्षायिक सम्यक्त्व न होने का कारण भी मोह कर्म की पाप प्रकृतियाँ ही हैं, कोई भी पुण्य प्रकृति नहीं। अत: यह कहना कि पुण्य मुक्ति में बाधक है, जैनागम व कर्म सिद्धांत के विपरीत है। कर्मसिद्धांत तथा आगमानुसार पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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